लाल बहादुर वर्मा |
भूमंडलीकरण अपेक्षाकृत एक आधुनिक टर्म है जिसने समूची दुनिया को कई अर्थों में सीमित कर दिया है। इस आधुनिकता ने एक तरफ जहाँ दुनिया को एकरूप बनाने में बड़ी भूमिका निभायी है वहीँ इसने कई दिक्कतें भी पैदा की हैं। कहना न होगा कि आज के ताकतवर और साम्राज्यवादी मानसिकता के देश इसका अपने पक्ष में उपयोग कर रहे हैं। इन्हीं सन्दर्भों में इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा का मानना है कि ‘साम्राज्यवाद के प्रतिकार का भी भूमंडलीकरण होना चाहिए।’ पहली बार पर हम प्रख्यात इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा के आलेखों को श्रृंखलाबद्ध रूप से प्रस्तुत कर रहे हैं। इसी क्रम में आज प्रस्तुत है उनका यह आलेख – ‘भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य’।
भूमंडलीकरण का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य
प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा
आजकल भूमंडलीकरण का प्रतिकार सामन्तवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरोध से ज्यादा होता लग रहा है। तो क्या भूमंडलीकरण उसी श्रेणी की परिघटना है और उतनी ही जन विरोधी, 'आउट ऑफ डेट' और प्रतिकार्य? प्रायः समझा यही जा रहा है। पर यह गलत है।
क्या भूमंडलीकरण- सामन्तवाद, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की तरह गलत है और उसे भी सिद्धान्त और व्यवहार में नकारा जा सकता है? नहीं, कतई नहीं और यही समझना जरूरी है। भूमंडलीकरण न तो पूरी तरह गलत है न तो चाह कर भी, सारी ताकत लगा कर भी, उसे समाप्त किया जा सकता है। ऐसा करना न केवल संभव नहीं, वांछित भी नहीं है।
भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, बाजारीकरण आज के पूँजीवाद की प्रकृति को चिन्हित करने के सरलीकृत सूत्र मात्र है। यह सब तो पूँजी की प्रकृति में निहित है- जब से पूँजीवाद का प्रादुर्भाव हुआ यह सब होता रहा है। आज भूंमडलीकरण का विशेष अर्थ पूँजी का भूमंडलीकरण है पर इतना ही कहना पर्याप्त नहीं। आज का पूँजीवाद पहले से अधिक जटिल, अधिक आक्रामक, अधिक ग्लैमराइज्ड, अधिक व्यापक तथा अधिक सूक्ष्म और सांस्कृतिक हो गया है और इसी लिए पहले से अधिक खतरनाक और इतिहास विरोधी हो गया है।
भूमंडलीकरण वास्तव में आधुनिकता की लाक्षणिकता है और आधुनिकता पूँजीवाद ही नहीं समाजवाद में भी चरितार्थ हुई है। इसलिए भूमंडलीकरण पूँजीवाद के लिए ही नहीं, समाजवाद के लिए भी अनिवार्य है। दूसरे, भूमंडलीकरण को न केवल रोका नहीं जा सकता, भूमंडलीकरण आर्थिक ही नहीं राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से भी चरितार्थ होता है और होगा ही। मुद्दा यह है कि वह किसके द्वारा किसके हित में कार्यान्वित होता है। तीसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि भूमंडलीकरण और केन्द्रीयकरण न पर्यायवाची हैं न अनिवार्यतः पूरक। ऐसा भी भूमंडलीकरण संभव है जो विकेन्द्रीकरण और संघवाद (फेडरलिज्म) के सार को प्रोन्नत करे। समाजवादी भूमंडलीकरण का यही लक्ष्य होना चाहिए।
भूमंडलीकरण के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य का विश्लेषण करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि विश्व संस्कृति का- अपने तमाम सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं के साथ, निर्माण नई विश्व व्यवस्था के साथ पिछले दशक में शुरू नहीं हुआ। वह पांच सौ वर्षों से जारी है।
उसकी गति विज्ञान और टेक्नालॉजी के विकास के साथ-साथ तेज होती गई है। शासक वर्ग की संस्कृति का वर्चस्व बनता-बढता गया है। आधुनिक काल के प्रारंभ में जब राष्ट्र-राज्य यूरोप में विकसित हुए, संस्कृति राष्ट्रीय होने लगी और सत्ता का चरित्र जब अन्तर्राष्ट्रीय हुआ तो संस्कृति भी अंतर्राष्ट्रीय हो गई। आज शासक वर्ग वैश्विक होता जा रहा है इसलिए बदनीयत और बाजारू शासकों की संस्कृति का वैश्वीकरण भी बाजारू और बनावटी है। नतीजे में संस्कृति के मर्म-सृजनशीलता और उदारीकरण का क्षरण उजागर होता जा रहा है।
एक एकांगी और विकृत भूमंडलीकरण के रू-ब-रू व्यक्ति-समुदाय-राष्ट्र सभी असहाय होते जा रहे हैं। स्थानीय, राष्ट्रीय और बाहुल (प्यूरल) यथार्थ के सामने जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा हो गया है।
पूँजीवाद के व्याख्याकार इसी भूमंडलीकरण को अनिवार्य ही नहीं निर्द्वन्द्व,सर्वशक्तिमान और रामबाण की तरह उद्धारक करार देने में लगे हुए हैं। सिद्धान्ततः ऐसी स्थिति में धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता को अप्रासंगिक होते जाना चाहिए था। पर पूँजीवाद उसके पोषण को मजबूर है। आखिर क्यों? इस लिए जिस तरह से अपने इतिहास के सर्वोत्तम काल फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान सामन्तवाद से क्रान्तिकारी ढंग से सत्ता छीन लेने के बाद भी पूँजीवाद ने सामन्तवाद से समझौता कर लिया था और दो सौ वर्षों से उसे जिलाए रखे हुए है। उसे पता है कि सामन्तवाद की मौत हो गई तो मेहनतकशों से उसकी सीधी टकराहट होगी जिसे सम्भालना असंभव हो जाएगा। अभी तो सामन्ती संस्थाओं और संस्कारों में जकड़ा मेहनतकश भी व्यक्ति और वर्ग के रूप विभाजित रहता है और अपने नैसर्गिक शत्रु पूँजीवाद पर भरपूर संगठित प्रहार नहीं कर पाता। आज पूँजीवाद के तथाकथित और घोषित एकक्षत्र वर्चस्व के दौर में‘फंडामेंटलिज्म’, तरह-तरह की संकीर्णताओं और जादू-टोने अंधविश्वासों को बढ़ावा मिलना- यहाँ तक कि उनका राजनीतिक इस्तेमाल, क्या अनायास हो रहा है? व्यक्ति और समाज में ज्यों-ज्यों तर्कशीलता और विवेकशीलता बढ़ती जा रही है रूढिग्रस्तता, नियतिवादिता और प्रतिक्रियावादिता को कमजोर होते जाना चाहिए। ऐसे तो जन विरोधी शक्तियों का प्रभुत्व ध्वस्त हो जाएगा। इसलिए तात्कालिक लाभ के लिए आत्मघाती पिछड़ेपन को भी प्रोन्नत किया जाता है। पूँजीवाद ऐसा पहली बार नहीं कर रहा है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उसी के द्वारा पैदा की गई स्थितियों में जब इटली, जर्मनी और स्पेन में फासीवाद उभरा तो उसे इस लिए पोसा गया था ताकि रूस की समाजवादी क्रान्ति के विरुद्ध उसका इस्तेमाल किया जा सके। जब हिटलर ने फ्रांस और इंगलैण्ड को हड़पने के लिए आक्रमण शुरू किया तब जा कर उन्हें भस्मासुर के जन्म की अर्थवत्ता समझ में आई।
आज भूमंडलीकरण के बाढ़ में सबसे सुगठित संस्था राष्ट्र-राज्य पूँजीवादी बांध में भी दरार पड़ने लगी है। सोलहवीं शताब्दी से ही राष्ट्र-राज्य पूँजीवाद के गढ़ के रूप में मजबूत होता गया था। उसकी दमनकारी भूमिका बढ़ती गई। उसके विरुद्ध क्रान्तियां तक हुई, पर समाजवादी क्रान्ति के बाद भी राज्य, जिसे विलुप्त होते जाना था, कमजोर नहीं हुआ। पर आज भूमंडलीकरण और अमरीकी वर्चस्व के जमाने में राज्य की सार्वभौमिकता लड़खड़ाने लगी है। भारतीय राज्य भी कितनी ही बार अपनी सार्वभौमिकता के साथ समझौता करता लगता है। व्यक्ति की बढ़ती आत्मकेन्द्रिता अजनबियत और बढ़ने न पाये इसके लिए विघटनकारी शक्तियों को पोसा जा रहा है। बढ़ती उद्धतता और बेहया आक्रामकता का प्रतिकार वर्तमान जीविता हर तरह की सामुदायिक और सामाजिकता को कमजोर कर रही है। समाज में सृजनशीलता का क्षरण हो रहा है। अनिवार्य और नैसर्गिक अन्तर-संबंध विकृत और विरूपित होते जा रहे हैं। समाज में सृजनशीलता का क्षरण हो रहा है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी, जो प्रगति के सूचक और वाहक हैं, आज प्रगति को अवरुद्ध करने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
परन्तु दूसरी ओर यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि मनुष्य सामाजिक ही नहीं सांस्कृतिक प्राणी भी है जैसे मनुष्य नैसर्गिक रूप में सामाजिक है वैसे ही सांस्कृतिक भी। संस्कृति प्रबुद्ध और ‘भद्र’ लोगों की बपौती नहीं। वह हर व्यक्ति की नैसर्गिक लाक्षणिकता है। संस्कृति मानव समाज का नैसर्गिक सम्बल है। वहीं अश्वमेध के घोड़ों की रास थाम ली जाती है। राम कितना ही आततायी हो लव-कुश का दमन-दलन संभव नहीं। मतलब यह कि संस्कृति के क्षेत्र में प्रतिकार को रोका नहीं जा सकता। तो फिर बीड़ा उठाने के लिए क्या करना होगा?
सबसे पहले तो यह समझ लेना होगा कि इतना जोर जानने पर क्यों है। सारी सूचना क्रान्ति का मन्तव्य क्या है? जाहिर है कि बौद्धिक प्रक्रिया-सूचना, ज्ञान, विवेक में सूचना सबसे निम्न स्तर का काम है। जानने को सर्वोतम प्राप्य के रूप में स्थापित करने का उद्देश्य यह है कि समझने की अर्थवत्ता समझ में न आवे। समझने से निर्णय ले पाने यानी विवेक का द्वार खुलता है और विवेक शासकों के लिए खतरनाक सिद्ध होता है। तभी तो अगर इर्न्फोरमेशन से बात आगे जाती भी है तो नॉलेज पर रोक लगा दी जाती है- कहा जाता है - ‘नालेज इज पावर’। पूछा जा सकता है कि ‘विजडम इज पावर’ क्यों नहीं। सारांश यह कि सांस्कृतिक मोर्चे पर सूचना के वर्चस्व और केन्द्रीकरण का विरोध होना चाहिए। कार्यभार के रूप में ‘क्विज कल्चर’ के मर्म को समझना चाहिए और उसके स्वरूप को बदलने और वैकल्पिक माध्यम विकसित करने के प्रयास होने चाहिए।
दूसरा मुद्दा सुख और आनंद का है। आज सारी दुनिया में, विशेष कर भारत जैसे देशों में,उन्हें सम्पति और भोग-विलास से जोड़ कर ही देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। कुछ लोग इससे ऊब कर पराभौतिक आनन्द की तलाश में जुटते हैं जैसे- यूरोप, अमरीका के कुछ लोग जिनका ‘मोहभंग’ हो जाता है। कुछ लोग दान-दक्षिणा-भजन-कीर्तन- तीर्थ-यात्रा में अपराध-बोध से रास्ता तलाशते हैं- जैसे भारत का मध्य वर्ग। दोनों ही अतिरेकपूर्ण रास्ते मीडिया के प्रिय विषय हैं और इनको तरह-तरह से प्रोन्नत किया जा रहा है। इसलिए जरूरी है कि आज सम्पत्ति, सुख, आनन्द आदि की अर्थवत्ता स्पष्ट की जानी चाहिए और समाजशास्त्र में, शिक्षण जगत में, इस पर जोर दिया जाय कि विकास वैयक्तिक है और आनन्द सामुदायिक तथा भौतिक आनन्द का सबसे बड़ा उत्सव सहभागिता है।
एक बड़ी सांस्कृतिक चुनौती आज की विडम्बनाओं से उबरने की है। आज आतंकवाद के विरुद्ध सबसे ऊंची आवाज उस की है जो दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी है। आज मानवाधिकार हनन का मुद्दा वह उठाता है जो सबसे व्यवस्थित और नियोजित ढंग से उसका हनन करता है। आज जनवाद का सबसे बड़ा हिमायती होने का दावा और दलील वह देश करता है जो दूसरे देशों में ही नहीं स्वयं अपने देश की भी उन जनवादी परम्पराओं का उल्लंघन कर रहा है, जिन्हें पूँजीवादी से बहुत गर्व से संजोया है। जो जनवाद आधुनिकता का अनिवार्य लक्षण है, जिसका विकास मानव की मुक्ति-कामना से अंतरंग रूप से जुड़ा हुआ है, जिसके लिए संघर्ष से मानव समाज ने नई बुलंदियां दी है। वह न केवल ठहराव का शिकार है बल्कि उसका क्षरण हो रहा है। इसलिए साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण के खिलाफ सबसे बड़ा मोर्चा जनवाद का है। यह न केवल पूँजीवादी-साम्राज्यवादी विकृतियों के विरुद्ध है अपितु समाजवादी भटकावों के भी खिलाफ जरूरी आधार प्रस्तुत करता है। इस से भी सामान्य जन के लिए कार्यभार निकलता है। आज जनवादी परिवार विकसित करना एक आधारभूत कार्यभार है, किसी भी तरह के नवजागरण और सांस्कृतिक आन्दोलन के लिए।
भूमंडलीकरण के संदर्भ में एक सांस्कृतिक संकट भाषा को ले कर भी पैदा हो रहा है। आज अंग्रेजी भूमंडलीकरण का उपकरण बन रही है। इंटरनेट की भाषा अंग्रेजी ही बनती जा रही है। पर यह संयोग ही है कि अंग्रेजी अमरीका की भी भाषा है। इसमें अंग्रेजी का क्या दोष? ऐतिहासिक कारणों से अंग्रेजी का विश्वव्यापी प्रचार हुआ। पहले न अंग्रेजों के राज्य में कभी सूरज डूबता था न अंग्रेजी के। अंग्रेजों का राज तो खत्म हुआ पर अंग्रेजी का बना रह गया। इसमें अंग्रेजी भाषा-साहित्य की प्रकृति का भी योगदान है। आज भी अंग्रेजी दुनिया की सबसे लचीली और जज्ब करने वाली भाषा है। हर साल सारी दुनिया की भाषाओं में सैकड़ों शब्द और मुहावरे अंग्रेजी में आत्मसात किए जाते हैं और शब्द कोशों का विस्तार होता जाता है। अब अंग्रेजी को नकारा नहीं जा सकता पर अपनी-अपनी भाषा-साहित्य के समुचित विकास में जुट जाने की चुनौती स्वीकारी नहीं जा सकती है। उदाहरण के लिए हिन्दी या तो पिछलग्गू और पिछड़ी होने को स्वीकार ले या फिर बीड़ा उठा ले। वर्तमान स्थिति में हिन्दी के साहित्यकार और बुद्धिजीवी इस चुनौती और उससे निकलने वाले कार्यभार की अर्थवत्ता के अहसास, समझ और संकल्प से लैस नहीं दिखाई पड़ते। आज विश्व के श्रेष्ठ लेखन का हिन्दी में अनुवाद मौलिक रचना से कम महत्वपूर्ण नहीं है-- कभी-कभी तो वह श्रेष्ठ और आवश्यक मौलिक रचना की पूर्व शर्त लगाता है। हिन्दी मनीषा की गहराई-ऊंचाई-विस्तार के लिए अनिवार्य है कि वह दुनिया के अधुनातन और श्रेष्ठतम से परिचित हो। यह अंग्रेजी अनुवादों की घटिया अनुवादों यहाँ-वहाँ से उड़ाए गये उदाहरणों और 'अंधों में कनवा राजा' की मानसिकता से संभव नहीं।
कुल मिला कर आज का विकृत और एकांगी भूमंडलीकरण लोगों में परायापन और असहायता भर रहा है- विकल्पहीनता (THERE IS NO ALTERNATIVE, TINA FACTOR) की ओर ले जा रहा है। ऐसे में पहला जरूरी काम तो यही है कि अपने को,अपनों को, सब को विश्वास दिलाया जाय कि विकल्प बाकी है, एक और संसार संभव है और उसे रचना आवश्यक है और उसे हम ही रच सकते हैं।
संकट आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का है।
मानवता के शत्रु भूमंडलीकरण को अपने हित में इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका जवाब राष्ट्रवाद पर जोर नहीं, समाजवादी भूमंडलीकरण की दिशा है। साम्राज्यवाद के प्रतिकार का भी भूमंडलीकरण होना चाहिए। आज सृजन और संघर्ष दोनों का परिप्रेक्ष्य विश्वव्यापी होना चाहिए।
अगर भारत केन्द्रित कोई रणनीति बनती हो तब भी यह जानना आवश्यक है कि भारत प्राचीन काल में संसार में किसी क्षेत्र में पिछड़ा नहीं था। मध्य काल में दुनिया के मुकाबले न यहाँ की अर्थव्यवस्था पिछड़ी थी, न राजनीति, न संस्कृति, विषमता और अमानवीयता के बावजूद। फिर आधुनिक काल में यह क्यों पिछड़ता चला गया? इसके लिए सामन्ती जकड़ पर्याप्त व्याख्या प्रस्तुत नहीं करती। मुख्यतः सामन्ती रूस में पूँजीवादी क्रान्ति के तत्काल बाद समाजवादी क्रान्ति हुई। सामन्ती चीन में नाजीवादी,फिर समाजवादी क्रान्ति और फिर पूँजीवादी प्रति क्रान्ति हुई। भारत 'न तीतर न बटेर’बना रहा। आखिर क्यों? क्योंकि यहाँ यही घातक जाति व्यवस्था थी और अठारहवीं शताब्दी में ही औपनिवेशिक राज्य कायम हो गया। और धीरे-धीरे विदेशी शासकों को भारत में माई-बाप मान लिया गया। यहाँ मध्य वर्ग और पूँजीवाद भी पनपा पर पंगु और पराधीन ही बना रहा। भगत सिंह के पहले किसी ने पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो कर व्यवस्था परिवर्तन की बात भी नहीं उठाई। यहाँ कांग्रेस ही नहीं कम्युनिस्ट भी प्रायः परमुखापेक्षी बने रहे- नेतृत्व के लिए कभी इंग्लैण्ड तो कभी रूस तो कभी चीन का मुंह ताकते रहे।
आज के हालात में बची-खुची स्वतंत्रता और सार्वभौमिकता भी छिन जाने का नहीं,समर्पित कर दिए जाने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इसलिए आज के सांस्कृतिक आन्दोलन को व्यापक सृजनशीलता, संघर्ष और साझेदारी विकसित करना पडे़गा। ऐसी चेतना और कार्यक्रम आज जीवन के लिए पूर्व-शर्त से बन गए हैं।
सम्पर्क –
मोबाईल- 09454069645
(इस आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)