Tuesday, January 27, 2015

मोदी, बत्रा, पोखरियाल आदि का '' इतिहास ज्ञान'' चरम मूर्खता ही नहीं परम फासिस्‍टी धूर्तता भी है- -- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

मोदी, बत्रा, पोखरियाल आदि का '' इतिहास ज्ञान'' चरम मूर्खता ही नहीं परम फासिस्‍टी धूर्तता भी है


-- कविता कृष्‍णपल्‍लवी

सच कहा गया है, ब्रह्माण्‍ड की तो एक सीमा है, लेकिन मूर्खता की कोई सीमा नहीं। अब मोदी से लेकर दीना नाथ बत्रा तक को पीछे छोड़ते हुए केन्‍द्रीय मंत्री रमेश पोखरियाल ने यह दावा किया है कि भारत में तो लाखों वर्षों पहले ऋृषि कणाद परमाणु परीक्षण कर चुके थे और यहाँ प्‍लास्टिक सर्जरी भी हुआ करती थी।
अब इस मूर्ख को कौन बताये कि लाखों वर्षों पहले तो इंसान नितान्‍त आदिम अवस्‍थाओं में रहता था। यह पुरातत्‍व द्वारा प्रणाणित तथ्‍य है। कणाद का काल ईसापूर्व छठी शताब्‍दी से दसवीं शताब्‍दी के बीच पड़ता है। वे वैज्ञानिक नहीं, वैशेषिक दर्शन के प्रणेता, एक दार्शनिक थे। आजीवक और लोकायत के बाद षड्दर्शनों में से सांख्‍य (प्रणेता-कपिल), वैशेषिक (प्रणेता-कणाद) और न्‍याय (प्रणेता-गौतम अक्षपाद) भौतिकवादी दर्शन थे जो वेदों को स्‍वीकार करते हुए भी ईश्‍वर की सत्‍ता को नहीं मानते थे। कणाद ने दर्शन में (विज्ञान में नहीं) परमाणुओं से संसार के विकास की अवधारणा प्रस्‍तुत की थी। इसके बारे में संक्षिप्‍त परिचयात्‍मक जानकारी हासिल करने के इच्‍छुक साथियों को के. दामोदरन की पुस्‍तक 'भारतीय चिन्‍तन परम्‍परा' (पी.पी.एच., दिल्‍ली) पढ़नी चाहिए।
आयुर्विज्ञान का विकास भारत में मूलत: एक भौतिकवादी विचारधारा और प्रारंभिक विज्ञान के रूप में हुआ था। उपनिषद काल तक प्रतिष्ठित विद्याशाखाओं में इसकी गणना नहीं होती थी। बौद्ध धर्म के उत्‍कर्ष का काल आयुर्विज्ञान के भी उत्‍कर्ष का काल था। ज्‍यों-ज्‍यों वर्णाश्रम और ब्राह्मणवाद का वर्चस्‍व स्‍थापित होता गया, आयुर्विज्ञान का हृास होता चला गया और अंतत: यह परम्‍परा नष्‍ट हो गयी। डी.पी.चट्टोपाध्‍याय के अनुसार, ''... इन चिकित्‍साशास्त्रियों ने पहली बार दोषरहित ज्ञान मीमांसा के मूल सिद्धान्‍त सुस्‍थापित किये।'' प्राचीन आयुर्विज्ञान की अधोगति भारत में भौतिकवादी विश्‍वदृष्टिकोण परम्‍परा की ऐतिहासिक पराजय थी।
भारतीय प्राचीन आयुर्विज्ञान के चरक और सुश्रुत जैसे महान प्रणेताओं के बारे में जानने के इच्‍छुक साथियों को देवी प्रसाद चट्टोपाध्‍याय की पुस्‍तक 'प्राचीन भारत में विज्ञान और समाज' (ग्रंथशिल्‍पी, दिल्‍ली) अवश्‍य पढ़नी चाहिए। आज प्राचीन आयुर्वेद के सर्वप्रमुख ग्रंथ 'चरक संहिता', 'सुश्रुत संहिता' और 'अष्‍टांग त्रयी' के साथ ही 'भेल संहिता', 'हारीत संहिता', 'काश्‍यप संहिता' जैसे ग्रंथों के जो संस्‍करण उपलब्‍ध हैं, उनमें ब्राह्मणवादी प्रभाव में काफी तोड़-मरोड़ किये गये हैं और क्षेपक जोड़ दिये गये हैं। यही विकृत-विरूपित आयुर्वेद आज बी.ए.एम.एस. को छात्रों को पढ़ाया जाता है। चट्टोपाध्‍याय ने अपनी पुस्‍तक में यह भी बताया है कि इन पुस्‍तकों में बाह्यारोपित तत्‍वों की पहचान किस रूप में की जाये। हिन्‍दुत्‍ववादी यह बात लोगों को कभी नहीं बतायेंगे कि चरक ने अलग-अलग रोगों के रोगियों के लिए गाय, हंस, सूअर, ऊँट, भैंस, तित्तिर, मोर, गिद्ध, उल्‍लू, नीलकण्‍ठ, कौव्‍वा, बिल्‍ली, नेवला, गीदड़, लोमड़ी, भालू, हिरन, शेर, बाघ, लकड़बग्‍घा, हाथी, गैंडा, घोड़ा, साँप आदि के मांस और केंचुआ और मछली आदि से बने विविध पथ्‍य एवं आहार सुझाये हैं।
'सुश्रुत संहिता' मुख्‍यत: शल्‍य चिकित्‍सा(सर्जरी) पर केन्द्रित है। तत्‍कालीन शल्‍य चिकित्‍सक ब्राह्मणों के कोप से बचने के लिए छिपकर शवों की चीरफाड़ करते थे। उससमय शल्‍यचिकित्‍सा अपनी प्रारम्भिक अवस्‍था में ही थी, जो स्‍वाभाविक है। अंग प्रत्‍यारोपण या प्‍लास्टिक सर्जरी होने का तो सवाल ही नहीं उठता।
धार्मिक कट्टरपंथी इसीतरह मिथक को इतिहास बनाने के साथ ही इतिहास को भी मिथक बना देते हैं। कणाद और चरक-सुश्रुत की भौतिकवादी परम्‍पराओं की ऐतिहासिक सच्‍चाई यदि लोगों को बताई जाये तो इससे लोगों यह भी पता चलेगा कि चातुर्वर्ण्‍य और ब्राह्मणवाद ने सामाजिक बर्बरता का साम्राज्‍य स्‍थापित करने के साथ ही, किसप्रकार भारत के वैज्ञानिक-दार्शनिक विकास की गति की हत्‍या कर दी थी। हिन्‍दुत्‍ववादी मूर्खताओं के पीछे की धूर्तता यह है कि वे भारतीय इतिहास में भौतिकवादी चिन्‍तन-परम्‍परा को तोड़-मरोड़कर उसे ब्राह्मणवाद और धर्मान्‍धता की धारा में मिलाकर पेश कर रहे हैं। इतिहास के महिमामण्‍डन के नाम पर वस्‍तुत: वे इतिहास को विकृत-विरूपित कर देते हैं। यह जाना-पहचाना फासिस्‍ट हथकण्‍डा है।

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