Monday, December 21, 2015

शासक वर्ग की संस्कृति लोगों को समाज बदलाव से विमुख कर देती है

कोई भी कलाकार मानव समाज से स्वतंत्र रहकर साहित्य नहीं रच सकता. कोई भी रचना विचार शून्य नहीं होती. अगर वह नींद से जगाने वाली नहीं है तो लोगों को सुलाने वाली जरूर होगी. शासक वर्ग की संस्कृति लोगों को समाज बदलाव से विमुख कर देती है. निम्न वर्ग के बजाय यह उच्च वर्ग की सेवा करती है. शासक वर्ग की अभिजनवादी संस्कृति की नकल करके मेहनतकश वर्ग खुद को उपहास का पात्र बनाता है. क्योंकि अपनी आर्थिक स्थिति से तंग, वह कला के इन महंगे साधनों की सस्ती और भोड़ी नकल ही कर सकता है.
सामंती समाज में दो तरह की संस्कृतियाँ एक दूसरे के विरुद्ध खड़ी थी. जिसमें पहली शासक वर्ग की अभिजनवादी संस्कृति थी तो दूसरी आम जनता की लोक संस्कृति. अभिजनवादी संस्कृति तकनीकी और बौद्धिक तौर पर श्रेष्ठ होने के बावजूद मुठ्ठी भर घरानों तक सीमित थी. जिसके अंतर्गत राजदरबार के शास्त्रीय संगीतकार, चित्रकार, कवि और साहित्यकार आते थे. जिस तरह उच्च वर्ग आर्थिक साधनों पर अपना कब्जा रखता है. उसी तरह सांस्कृतिक संसाधनों पर भी उसका वर्चस्व होता है. लेकिन वह अपनी आर्थिक सम्पन्नता से ज्यादा अपनी संस्कृति पर घमण्ड करता है. वह निम्न वर्ग के लोगों को असंस्कृत, गन्दा, असभ्य और अभद्र समझकर घृणा करता है. मेहनतकश वर्ग को उपद्रवी भीड़ मानता है. इसी तर्क से  वह निम्न वर्ग के शोषण को जयाज ठहरता है और मानता है कि इनके ऊपर शासन करने का उसे अधिकार प्राप्त है. उसकी अभिजनवादी संस्कृति मन बहलाव और उसके अपराध बोध को कम करने का साधन है. इसीलिए व्यक्तिगत रूप से लाभ उठाता हुआ वह कला की सामाजिक भूमिका से इनकार करता है और कला की अंतर्वस्तु के बजाये रूप चमत्कार पर ज्यादा जोर देता है. जबकि रूप चमत्कार का जो सौंदर्य उसमें होता है, जिसपर हमारे कुछ साथी फिदा हो जाते हैं, उसकी लाक्षणिक विशेषता है. उसकी अंतर्वस्तु तो वास्तव में कुलीन (सामंती या पूँजीवादी) होती है.
बहुसंख्यक जनता से जुड़ी लोक संस्कृति सहज, सरल और अपनी जमीन से पैदा हुई थी. जिसे ढाई सौ साल के औपनिवेशिक शासन ने कुचल कर रख दिया. अंग्रेजों की गुलामी ने एक ओर जहाँ देश को आर्थिक रूप से निचोड़कर कंगाल बना दिया. वहीं दूसरी ओर इसने हमारे देश की बहुरंगी लोक संस्कृति को विकसित होने से रोक दिया. इसने हमारी सांस्कृतिक जड़ें ही काट दी. इस तरह हम अपनी सांस्कृतिक विरासत जैसे- सामंती कला-कौशल, परम्परा, प्रतिष्ठा, मानवीय मूल्य और बौद्धिक उन्नति के सकारात्मक और प्रगतिशील पहलुओं से कट गये. जबकि अंग्रेजों ने गुलामी को बरकरार रखने के लिए सामंती संस्कृति के नकारात्मक पहलुओं जैसे- अज्ञानता, अन्धविश्वास, चापलूसी, श्रम से घृणा और नकलचीपन की प्रवृत्ति जैसे प्रतिक्रियावादी विचारों को बढ़ावा दिया. आजादी के बाद सड़ी-गली संस्कृति हमें विरासत में मिली. इसमें ऐसे विचार मौजूद थे, जो इंसान -इंसान के बीच दीवार खड़ी करते हैं जैसे- जातिवाद, क्षेत्रवाद, स्त्री-पुरुष असमानता और धार्मिक भेदभाव. आजादी के बाद पूँजीवादी शासन व्यवस्था ने सड़े-गले सांस्कृतिक कचरे को साफ नहीं किया बल्कि इसमें इजाफा ही किया. व्यक्तिवादी चरम स्वार्थपरता और योरोपीय संस्कृति की नकल भी इसमें शामिल कर लिया गया. इस कचरे से सकारात्मक और प्रगतिशील तत्वों को छाँट निकालना मुश्किल काम था, जिसे जनवादी संस्कृति के प्रचार-प्रसार से पूरा किया जा सकता था. जातिवादी सोच, स्त्री-पुरुष भेदभाव और सांप्रदायिक विचारों के खिलाफ संघर्ष करके मेहनतकश जनता में वैज्ञानिक नजरिया और श्रम की गरिमा विकसित करना इसका लक्ष्य था. इसके साथ अंग्रेजों के षड्यन्त्रों का पर्दाफाश करना और जनता में नये स्वप्न और आकांक्षाएँ जगाना इसका प्रमुख अंग था. इसका उद्देश्य बताते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के समय प्रेमचंद ने कहा था, हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो- जो हममें गति, संघर्ष, बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है.
सशक्त राष्ट्रीय आन्दोलन ने जनवादी संस्कृति के निर्माण में एक नया कदम बढ़ाया. प्रगतिशील आन्दोलन इसी की देन था. कवि सम्मलेन, गीत, नाटक, पत्रिका गोष्ठी, सभा सम्मलेन आदि के जरिये जनता तक पहुँच बनाया गया और उनके दुखों, कमजोरियों और संघर्षों को जनवादी साहित्य का मुख्य विषय बनाया गया. इसने कई गौरवपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की. लेकिन बिना खड्ग-बिना ढाल वाली आधी अधूरी आजादी की लड़ाई के बाद हमारे देश के शासकों ने घिनौने-सड़ियल सामंती शक्तियों से समझौता कर लिया. जिससे एक नयी सांस्कृतिक समस्या पैदा हुई. इसके बावजूद व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों से आजादी के दो-तीन दशकों बाद तक सकारात्मक कला-संस्कृति की रचना चलती रही. लेकिन ये प्रयास पूरे समाज के चेतना में अमूल-चूल परिवर्तन करने में नाकाफी साबित हुए और जनवादी संस्कृति के निर्माण का काम आज भी अधूरा है. समाज बदलने वाली शक्तियों को इस अधूरे कार्यभार को पूरा करना है.
1991 में देश के शासक वर्गों द्वारा विदेशी पूँजी के आगे आत्मसमर्पण का नतीजा आज हम साम्राज्यवादी सांस्कृतिक हमले के रूप में झेल रहे हैं. इसने एक और हिंसा, लम्पटता, अश्लीलता का गुणगान करने वाली दूषित फिल्में, पुस्तकें, पत्रिकाएँ, संगीत, नृत्य और फैशनपरस्ती की भरमार कर दी है. वहीं दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हमारे देश की सभी मूल्य मान्यताओं पर उपभोक्तावादी संस्कृति लाद रही हैं ताकि उनका माल ज्यादा से ज्यादा बिके. इस काम को वे विज्ञापनों के जरिये अंजाम दे रही हैं.

http://www.palpalindia.com से साभार 

No comments:

Post a Comment