Monday, February 2, 2015

नारी आन्दोलन की दिशा

नारी आन्दोलन की दिशा




मानव समाज जब से शोषक और शोषित में बटा तभी से उनके बीच संघर्षों का एक अटूट सिलसिला आज तक चला आ रहा है. शोषित में भी शोषित औरत की गुलामी और उसके खिलाफ प्रतिरोध की एक लम्बी परम्परा रही है. आज भी बदली हुई परीस्थितियों और नारी दासता के बदले हुए रूपों के विरुद्ध औरत का संघर्ष जारी है और उसके निर्णायक होने की सम्भावनाएँ दिनोंदिन बढती जा रही हैं.

किसी भी समुदाय के संगठित होने और संघर्षों में उतरने की दो बुनियादी शर्तें हैं पहला समाज में उसकी आर्थिक स्थिति और दूसरा उस समुदाय के अन्दर मौजूद चेतना का स्तर. आज की औरत इन दोनों ही शर्तों को पूरा करती है. सामंती जकड़न टूटने के साथ ही विभिन्न स्तरों पर सामाजिक उत्पादन और उससे जुड़ी कर्रवाइयों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है. शिक्षा के प्रचार-प्रसार यातायात एवं संचार के साधनों के विकास ने घर की चार दिवारी में कैद कूपमंडूकता की स्थिति से औरतों को बाहर निकाला है. उसके अंदर अपनी पहचान और हैसियत के प्रति जागरूकता बढ़ी है. आज से लगभग साठ साल पहले महादेवी वर्मा जैसी नारी मुक्ति की पक्षधर मनीषियां नारी संघटन का सपना देख सकती थीं उनकी दुर्दशा को तीव्रता से उजागर कर सकती थीं लेकिन एक व्यापक जनाधारों वाला नारी आन्दोलन संगठित करना उस दौर के लिए अत्यंत कठिन होता. कारण यह कि उस समय औरतों में न तो आज की जितनी चेतना थी न ही इतनी भारी संख्या में वे घर की दहलीज लांघ कर सामाजिक जीवन में आयी थीं. आज स्थिति भिन्न है.

ऊपर नारी संगठन के लिए जिन दो शर्तों की चर्चा की गयी है वे तो न्यूनतम शर्त मात्र हैं- इतने से ही नारी संगठन स्वतः निर्मित हो जायेगा ऐसा सोचा नहीं जा सकता. आज हम चेतना के जिस उच्च धरातल पर जी रहें हैं वहाँ स्वतःस्फूर्त रूप से कुछ भी गठित होने की बात नहीं सोची जा सकती. सचेत कार्रवाईयों और योजनाबद्ध प्रयासों द्वारा ही आज हम किसी परिवर्तन की उम्मीद कर सकते हैं.

आज हमारे देश में विभिन्न प्रकार के नारी संगठन मौजूद हैं. नारी शोषण और उत्पीड़न से जुड़े विभिन्न सवालों पर विभिन्न क्षेत्रों में ये संगठन सक्रिय हैं. प्रश्न यह है कि इन संगठनों को एकीक्रत देशव्यापी और प्रबल वेगवान धारा में कैसे बदला जाए. इसके लिए जरूरी है कि नारी आन्दोलन की सही दिशा तय की जाए उसके सही परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट किया जाए ताकि नारी मुक्ति के सपने को साकार किया जा सके. नारी मुक्ति के मार्ग में आज कौन सी बाधाएं हैंउसके मित्र और शत्रु कौन हैं?उसकी कार्यसूची पर कौन से प्रमुख कार्यभार हैं. इन सवालों को तय करना जरूरी है.

आज की नारी पराधीन है. पुरुष प्रधान मानसिकता उसकी पराधीनता को चिरजीवी बनाये रखने में सहायक है. इसका सबसे निकृष्ट रूप है नारी को चूल्हे-चौके संतान उत्पादन और उसके लालन-पालन तक सीमित रखना. घरेलू काम के एकरस उबाऊ और असृजनशील कामों में जिन्दगी गर्क करती हुई वह सोच भी नहीं पाती कि मुक्ति दरअसल है क्या.

जाहिर है कि नारी की यह स्थिति पुरुष समुदाय के लिए अत्यन्त सुविधाजनक है और इसीलिए वह नारी की इस स्थिति को बनाये रखने में ही अपना हित समझता है. लेकिन नारी मुक्ति के परिप्रेक्ष्य में यहाँ एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि क्या समाज के सभी पुरुषों को नष्ट करके नारी मुक्ति हो सकती हैक्या पुरुष विहीन समाज की कल्पना की जा सकती हैमालिकों का सर्वनाश करके दासों ने मुक्ति पायी थी. पूंजीपति वर्ग ने सामंतों के वर्ग को निर्मूल करके अपनी सत्ता स्थापित की थी. समाजवादी देशों में मजदूर वर्ग ने पूँजीपति वर्ग को एक वर्ग के रूप में समाप्त कर दिया था. राष्ट्रों की मुक्ति औपनिवेशिक सत्ता को नष्ट करके संभव हुई. लेकिन नारी मुक्ति पुरुषों का विनाश करके नहीं हासिल की जा सकती बल्कि नारी पुरुष के बीच बराबरी और गरिमामय मानवीय संबंधों की स्थापना करके ही इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है. स्पष्ट है कि नारी मुक्ति का निशाना पुरुष वर्ग नहीं बल्कि नारी को गुलाम बनाने वाली पुरुष प्रधान मानसिकता और पुरुष प्रधान आचार संहिताएँ हैं.

पिछले कुछ दशकों में भारतीय समाज में मंथर गति से होने वाले सामाजिक आर्थिक बदलाव के चलते महिलाओं की स्थिति में भी परिवर्तन आया है. सामंती जकड़न टूटने के कारण जहाँ उनके अन्दर अपनी पहचान और समाज में सम्मानजनक स्थान का सपना और उसे पाने की आकांक्षा बढ़ी है वहीं आज कदम-कदम पर उसे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. सामंती समाज में महिलाओं के प्रति  असम्पृक्तता और तटस्थता मौजूद थी घर की तमाम गठरी-मुठरी की तरह औरत भी किसी कोने पड़ी रहती थी लेकिन वहां उसका भरण-पोषण की जिम्मेदारी परिवार की होती थी. बचा-खुचा खा लेती थी और जो भी मिलता था पहन लेती थी. उसके सामने अस्तित्व का संकट नहीं था.

नारी के प्रति सामंती असम्पृक्तता की जगह आज पूँजीवादी अलगाव ने ले ली है. पूँजीवादी समाज ने परम्परागत परिवारों में विष घोल दिया है. लोगों में बढते स्वार्थ और आत्मकेन्द्रित सोच के कारण औरतों का भविष्य दाँव पर है. जो औरत अपनी पहचान अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष कर रही थी अब उसके सामने रोटी की समस्या अस्तित्व की रक्षा का प्रश्न भी आ खड़ा हुआ है. उसे अस्मिता और अस्तिस्व दोनों की रक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. आज अधिकांश वैवाहिक जीवन तनावपूर्ण हैं. सम्बधों का निर्वाह करने सब कुछ चुपचाप सह लेने की जगह यदि कोई महिला प्रतिवाद का रास्ता अपनाती है तो उसके लिए पनाह नहीं होती. आज परित्यक्ताओं विधवाओं या किसी कारण से अविवाहित महिलाओं के लिए समाज में जीना अत्यन्त भयावह है. नारी आन्दोलन के लिए यह एक विचारणीय मुद्दा है.

आज दुनिया में कोई भी देश प्रत्यक्षतः गुलाम नहीं है. हमारे देश में भी सामंतवाद अवशेष के रूप में बचा हुआ है. सामंती मूल्य मान्यताओं का प्रभाव आज भी है. लेकिन यह धन पर आधारित शोषण पर आधारित समाज का सहयोगी बनकर ही अपनी भूमिका निभा रहा है. इसका आधार राजे-रजवाड़े’ और पुराने सामंत नहीं हैं बल्कि पूँजी के मालिक समाज के नये शोषक हैं. वैश्वीकरण और उदारीकरण के नाम पर भारतीय शासक अपनी देश की जनता के खिलाफ विदेशी लुटेरों के साथ गठजोड़ कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में औरत को गुलाम बनाने के नये-नये हथकंडे अपनाये जा रहे हैं. बाजार को एकमात्र नियंता के रूप में प्रतिष्ठित करने के बाद औरतों को भी उपभोक्ता वस्तु के रूप में तब्दील कर बाजार में उतारा जा रहा है. नारी देह को भरपूर मुनाफा कमाने का साधन बनाया जा रहा है. मुक्ति के सपने को बाजारू व्यवस्था अपने प्रचार माध्यमों का भरपूर प्रयोग कर रही है. देशी-विदेशी पूँजी के गठजोड़ के कारण देश में जो नए तरह की गुलामी थोपी गयी है उसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं पर हुआ है. ज्यों-ज्यों शोषित तबको का जीना दूभर होता जा रहा हैउन तबकों की औरतों की पहले से ही चली आ रही दुर्दशा में बढ़ोत्तरी हो रही है. शिक्षा स्वास्थ्य एवं अन्य सामाजिक सेवाओं में होने वाली कटौती का सबसे बुरा असर पहले से ही उपेक्षित रहीं औरतों की स्थिति पर ही हुआ है.

आज नारी सहित तमाम शोषितों की लड़ाई मुनाफे और लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था से है. नारी मुक्ति को मानव मुक्ति से काटकर नहीं देखा जा सकता. इस व्यवस्था के खिलाफ नारी मुक्ति आन्दोलन को विभिन्न शोषित-पीड़ित तबकों का साझेदार बनाना अनिवार्य है.

समाज का विशेष समुदाय होने के चलते महिलाओं की अपनी कुछ समस्याएं हैं. उनकी रोजमर्रा की अपनी लड़ाईयाँ हैं. आर्थिक सामाजिक सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर पुरुषों के बराबर अपनी हैसियत के लिए औरतों को विभिन्न मोर्चों पर लड़ना पड़ता है. यह नारी संगठन का तात्कालिक कार्यभार है. लेकिन स्पष्ट है कि नारी मुक्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक ऐसी समाज व्यवस्था जरूरी है जहाँ शोषण उत्पीड़न के सभी रूपों का नाश कर न्याय एवं समता पर आधारित समाज का निर्माण किया जा सके. नारी आन्दोलन का यह दूरगामी लक्ष्य है. इसकी रोजमर्रा की तात्कालिक लड़ाईयाँ इसी दूरगामी लड़ाई की तैयारी हैं. इस बड़ी लड़ाई के लक्ष्य को सामने रखकर ही हमे अपने मार्ग में आने वालें एक-एक अवरोध हटाते हुए आगे बढ़ते जाना होगा.

आज की महिलाएं व्यक्तिगत तौर पर पुराने तरीके से जीने से इंकार कर रही हैंलेकिन इस नकार के साथ ही उनके सामने नारी मुक्ति का सपना हो- यह जरूरी नहीं है. नारी आन्दोलन की अग्रग्रामी शक्तियों का यह दायित्व होता है कि आज औरतों के सामने छोटे-छोटे सपने की जगह सम्पूर्ण नारी जाति की गौरवमयी स्थिति को प्राप्त करने का बड़ा लक्ष्य रखें. आज की औरतें व्यक्तिगत स्तर पर अपनी पीड़ा और वेदना महसूस कर रही हैं उससे मुक्ति की आकांक्षा लिये हैं लेकिन इस पीड़ा और वेदना का सामान्यीकरण कर उसे पूरी नारी जाति की पीड़ा एवं वेदना से जोड़ने का काम तभी संभव है जब अग्रगामी शक्तियाँ उनके अन्दर चेतना के प्रचार-प्रसार का काम अपने हाथ में लें. यह व्यवस्था लोगों में अलगाव एवं स्वार्थ पैदा करने के लिये तमाम कोशिशें करती है ताकि वह अपनी सत्ता को अक्षुण्ण बनाये रखे. नारी समुदाय के बीच एकजुटता और निःस्वार्थ भाव से उसे आन्दोलन में खींच लाने के लिये निरंतर प्रयास करना होगा.

 ‘’दुःख तुम्हें क्या तोड़ेगा 
 तुम दुःख को तोड़ दो 
 केवल अपनी आँखें
 औरों के सपने से जोड़ दो.’’

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