Wednesday, May 20, 2015

गिरदा जनवादी संस्कृति के पुरोधा थे- गीता चमोली

गिरदा जनवादी संस्कृति के पुरोधा थे


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गिरदा के असमय अवसान पहुँची मार्मिक पीड़ा की टीस चार साल बाद आज भी है। वर्ष 1995 में चिडि़याघर रोड पर शहीद प्रताप सिंह की पहली वर्षगाँठ पर एकत्रित श्रद्धांजलि सभा में नैनवाल अंकल ने गिरदा से परिचय कराया था। खादी का झोला लटकाए और अधजली बीड़ी सुलगाते बातों में मशगूल गिरदा पहली ही मुलाकात में अपनापन महसूस करा गये। यह अपनत्व ‘नैनीताल समाचार’ में प्रकाशित उनकी रचनाओं के ज़रिये उनके निधन तक सतत् बना रहा। बाद में भी जब हम नैनीताल जाते, सपरिवार यदा-कदा गिरदा से मिलने चले जाते। अफ़सोस उनके अन्तिम दिनों में उनसे न मिल पाने का रहा है।
वे एक सम्पूर्ण युग थे, अपनी ही तरह की एक अलग तरह की शख्सियत जिसने अपने जनगीतों और कविताओं के जरिए आम लोगों के दर्द को उकेरा। हिमालय की संवेदना, हिमालय का पर्यावरण और हिमालयवासियों के हक़-हक़ूकों के प्रति उनकी सतर्क दृष्टि थी। इसीलिए उन्होंने कभी अपने आन्दोलन पर विराम नहीं लगाया, वरन् वन व भूमाफियाओं द्वारा पहाड़ों को तहस-नहस करने की नीयत को भाँप कर, लगातार अपने गीतों के माध्यम से जनता को सदा सचेत किया। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के दौरान उनके जनगीत प्रेरणा श्रोत थे और यहाँ की संस्कृति, जल-जंगल, जमीन और पर्यावरण संरक्षण के तो वे पर्याय बन गये थे।
वैज्ञानिक समाजवाद में उनकी आस्था अन्त तक अक्षुण्ण बनी रही। मेहनतकश जनता के शोषण ने उनके भीतर जिस आक्रोश को जन्म दिया, उसी के चलते एक संस्कृतिकर्मी के रूप में गिरदा अपने समय की हलचलों में अग्रिम पाँत में खडे़ रहे। उन्होंने तमाम जनान्दोलनो में शामिल होकर गीत एवं नाटक रचे, अधिकांश परिस्थितियों की आवश्यकतानुसार अपनी मातृभाषा कुमाउँनी में। वे जानते थे कि भूमंडलीकरण के इस दौर में आंचलिक संस्कृतियाँ जितने खतरे में आज हंै, उतनी पहले कभी नहीं थीं। अतः उनके संरक्षण की आज सर्वाधिक आवश्यकता है। मनुष्य जिस संस्कृति में पला-बढ़ा होता है, वह उसके संस्कारों में, उसके भावजगत में गहरे पालथी जमाए बैठी होती है। किसी के लिये भी उस पृष्ठभूमि से एकाएक अपने आप को काट कर देख पाना सम्भव नहीं है।
गिरदा का मानना था कि संस्कृति मनुष्य की जीवन पद्धति का समग्र रूप है। किसी भी समाज की पहचान अंततः उसकी सांस्कृतिक संरचना में निहित उन विशिष्टताओं से होती है जो उसे विश्व समाज का अभिन्न अंग होते हुए भी, एक स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान करती है। मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएँ और प्रकृत मनोभाव सर्वत्र एक समान होते हैं। उनमें देश, काल और परिस्थिति के अनुसार भी कोई अन्तर नहीं होता। अन्तर यदि होता है तो केवल मूलभूत आवश्यकताओं और मनोभावों के प्रकटीकरण अर्थात् उनकी अभिव्यक्ति में। अभिव्यक्ति का अन्तर ही दरअसल वह महत्वपूर्ण तत्व है जो किसी समाज को अलग किस्म की चरित्रगत विषेशता और भिन्न व्यक्तित्व प्रदान करता है। जाहिर है, अभिव्यक्ति का यह स्वरूप एक सा नहीं होता है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचते-पहुँचते उसमें परिवर्तन हो जाते हैं। किसी भी क्षेत्र की संस्कृति को आंचलिक व्यक्तित्व प्रदान करने का समस्त श्रेय अभिव्यक्ति के इसी स्वरूप को है, जिसे गिरदा ने अपने जनगीतों में व्यक्त किया है। इसका एक उदाहरण, फैज़ की रचना ‘‘हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे’’ का कुमाउँनी में अनुवाद कर उसे लोकधुन के साथ लोकप्रिय बनाना है। कुमाउँनी होलियों को समसामयिक मुद्दों के साथ जोड़ते हुए उन्होंने होली पर्व को ही जनान्दोलन का एक माध्यम बना डाला।
भौगोलिक संरचना की भी अभिव्यक्ति की भिन्नता में महत्वपूर्ण व लगभग निर्णायक भूमिका होती है। पहाड़ पर रहने वाले लोगों की जीवन शैली निश्चय ही समुद्र के किनारे रहने वालों या मैदानी या रेगिस्तानी इलाके के लोगों से भिन्न होगी है। यह भिन्नता अलग सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की जनक होती है। संस्कृति का स्वरूप भी सदा एक सा नहीं रहता। अंचलों की संस्कृति के समन्वित स्वरूप का नाम ही राष्ट्र होता है। अंचल विशेष की संस्कृति के क्षरण की चिंता प्रकारान्तर से राष्ट्र की ही चिंता है। राष्ट्ररूपी देह के एक अंग की भी हानि कुल मिलाकर राष्ट्रीय हानि ही कहलाएगी। गिरदा का इस दिशा में चिंता करना उन्हें समकालीन महान मानवों की श्रेणी में खड़ा करता है। जुलाई 1984 में उनके द्वारा रचित कविता ‘मेरे बच्चे सोये चार’ उनकी इसी अभिव्यक्ति का परिणाम है:
फिर आई वर्षा ऋतु लाई नव जीवन जलधार
कृषि प्रधान भारत में उजड़े फिर कितने घर बार
….दिल्ली-लखनौ को क्या लेना, उनको वक्त कहाँ है इतना,
उनके काम हजार, वो ठहरे देश के ठेकेदार,
कि हमरे बच्चे सोये चार,
वह तो नैनीताल जिला है, जहाँ कि भूस्खलन हुआ है,
वो देखेंगे यार, प्रशासन जिले का जिम्मेदार,
कि हमरे बच्चे सोये चार………
साहित्य भाषा का नहीं, जनता का होता है। इसकी अभिव्यक्ति उनकी निम्न पंक्तियों में होती है, जिसमें वे आम आदमी को उत्साह दिलाते हुए राह दिखा रहे हैं, कि, इतना दुःखी मत होओ, एक दिन तो अवश्य आएगा जब सब कुछ ठीक हो जाएगा:
ततुक नी लगा उदेख, घुनन मुनई नि टेक
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में…..
खगोलीकरण के इस युग में पनप रही काॅरपोरेट संस्कृति में लोक पर बाजारवाद का हमला चिन्ता का विषय बना है। बढ़ते व्यवसायीकरण ने शिक्षा को व्यापार बना दिया है। अपने दुधमुँहे बच्चे को किसी पब्लिक स्कूल में प्रवेश दिला कर पर माँ-बाप जैसे वैतरणी पार कर लेते हैं। क्षमता से अधिक इनकी फीस देने के बावजूद बच्चे को अपने वजन से अधिक बस्ता ढोते हुए देखकर तरस आता है। गिरदा ने तब कहा था:
कैसा हो स्कूल हमारा ?
जहाँ न बस्ता कन्धा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न पटरी माथा फोडे, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न अक्षर कान उखाडे, ऐसा हो स्कूल हमारा।
जहाँ न भाषा जख्म उभारे, ऐसा हो स्कूल हमारा।……
जहाँ बालपन जी भर चहके, ऐसा हो स्कूल हमारा।
गिरदा के मुँह से यह कविता सुनकर बच्चे कितना खुश होते थे ? आज की शिक्षा व्यवस्था ने तो जनान्दोलनों से नाक भौं सिकोड़ने वाला एक ऐसा समूह तैयार कर दिया है जो सामाजिक कर्म का मतलब अपने आपको कथा-प्रवचनों तक सीमित रखना समझता है। जरूरतमंदों की बुनियादी जरूरतों का जो खयाल गिरदा को था उसका उल्लेख उन्होंने कविताओं के माध्यम से करते हुए आम जनता तक सहजता से पहुँचाया-
बात येे फिलवक्त की है साथियों ! इस देश में,
ये उदासी ऊपरी है इस देश में,……
साथियों यह देश कैसा तब बनेगा, होगी जब,
सर्वहारा की हुकूमत सोचिये इस देश में।
गिरदा के जीवनवृत्त का सांगोपांग अनुशीलन करने पर हम देखते हैं कि वे गीतकार, रंगकर्मी, आन्दोलनकारी तथा कुमाउँनी और हिन्दी साहित्य के बेजोड़ स्तम्भ थे। अपने इस कौशल से उन्होंने लोक जीवन में जनवादी संस्कृति को रचाने-बसाने का काम किया। पहाड़ का कोई भी क्षेत्र और विषय गिरदा की नजरों से अछूता नहीं रहा। पहाड़ के लोकजीवन और रंगमंच को उन्होंने अपनी आवाज के जादू से न सिर्फ अलंकृत किया वरन् इस मौलिकता के चलते वे आम जनमानस में इतने लोकप्रिय हुए कि जनता ने उन्हें जनकवि का दर्जा दिया। इस दृष्टि से गिरदा कबीर, मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, गोरख पाण्डे और गदर की प्रगतिशील पाँत में उल्लिखित किए जाने के हकदार हैं। गिरदा ने साहित्य की प्रगतिशील विरासत को गहराई से आत्मसात् करते हुए, उसे समृद्ध बनाया। उनके गीत तरसती मानवता के लिए सदैव प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। ऐसे युग पुरुष को शत्-शत् प्रणाम।

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