भारत में सांस्कृतिक विकास
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
भारत में सांस्कृतिक विकास (13वीं से
15वीं शताब्दी)
तेरहवीं शताब्दी
के प्रारम्भिक वर्षों में दिल्ली सल्तनत का उदय देश के 'सांस्कृतिक विकास' के नये काल का सूत्रकाल माना जा सकता है। तुर्क
आक्रमणकारियों को बर्बर नहीं कहा जा सकता है। वे लोग नवीं और दसवीं शताब्दी में
मध्य एशिया से पश्चिम एशिया में गए थे। उन्होंने वहाँ पहुँचकर उसी
प्रकार इस्लाम स्वीकार कर लिया, जिस प्रकार उससे पहले मध्य एशिया से आक्रमण करने वालों ने बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया था। वे भी उस क्षेत्र की संस्कृति में एकाकार हो गए।
अरबी-फ़ारसी संस्कृति
उस समय मोरक्को और
स्पेन से लेकर ईरान तक की मुस्लिम दुनिया में छाई अरबी-फ़ारसी संस्कृति अपने उत्कर्ष पर थी। इस क्षेत्र के निवासियों ने विज्ञान, साहित्य और स्थापत्य कला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया
था। जब तुर्कियों ने भारत पर आक्रमण किया, तब तक वे इस्लाम को पूरी तरह अपना चुके थे और उसके सिद्धांत उनके सामने स्पष्ट
थे। इतनी ही नहीं, शासन कला और स्थापत्य आदि के बारे में भी उनके निश्चित
विचार थे। दूसरी ओर भारतीय भी अपने धर्म को लेकर निश्चित मत थे, और उनके उसके प्रति अपने विचार थे। कला, स्थापत्य और साहित्य को लेकर भी उनके विचार स्पष्ट थे।
भारतीय समाज और तुर्क
इस भारतीय समाज के
साथ तुर्कों का सम्बन्ध एक समृद्ध विकास की लम्बी कड़ी में परिवर्तित हुआ। किन्तु, यह प्रक्रिया लम्बी और उतार-चढ़ाव से भरी हुई थी। वस्तुतः
जब दो पक्षों के अपने-अपने दृढ़ विचार और विश्वास होते हैं, तो एक-दूसरे को ग़लत समझने की सम्भावना भी मौजूद रहती है।
किन्तु इस प्रक्रिया में एक दूसरे को समझने के प्रयत्नों के फलस्वरूप कलाओं, स्थापत्य, संगीत, साहित्य और यहाँ तक की रीति-रिवाज़ों, कर्म-काण्डों और धार्मिक विश्वासों के क्षेत्र में भी
एक-दूसरे में विलयन की प्रक्रिया का जन्म हुआ। विलयन और संघर्ष की ये प्रक्रियाएँ
एक-दूसरे के समान्तर चलती रहीं। देश और काल के अनुसार बल कभी एक पर अधिक हो जाता
था और कभी दूसरे पर।
स्थापत्य कला
नये शासको की पहली ज़रूरत रहने के लिए
मकानों और अपने अनुयायियों के लिए पूजा के स्थानों की थी। पूजा के स्थान उपलब्ध करने के लिए
उन्होंने पहले से विद्यमान मन्दिरों और इमारतों को मस्जिदों में परिवर्तित किया।
इसके कई उदाहरण हैं, दिल्ली की क़ुव्वत-उल-इस्लाम
मस्जिद, जो क़ुतुबमीनार के पास है, और अजमेर की इमारत अढाही दिन का झोंपड़ा। क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद पहले एक जैन मन्दिर थी, जिसे कालान्तर में विष्णु-मन्दिर में परिवर्तित किया गया तथा अढ़ाही दिन
झोपड़ा एक बिहार था।
नई निर्माण शैली
दिल्ली में इमारत
के क्षेत्र में नया निर्माण 'एक उपासना गृह' (गर्भ-गृह) के सामने महीन और विस्तृत खुदाई से पूर्ण तीन
महराबें थी। गर्भ-गृह को गिरा दिया गया। इसकी सजावट की शैली बहुत ही रुचिपूर्ण है।
इसमें कोई मानव या पशु की आकृति नहीं है। क्योंकि ऐसा करना ग़ैर-इस्लामी माना जाता
था। इसके स्थान पर उसमें बेल-बूटे और क़ुरान की आयतें खोदी गई हैं। ये दोनों चीज़ें एक दूसरे में कलात्मक
ढंग से मिली हुई हैं। लेकिन जल्दी ही तुर्कों ने अपनी नयी इमारतें बनानी शुरू कर
दीं। इस काम के लिए उन्होंने स्थानीय पत्थर काटने वालों और रणभीरों आदि शिल्पकारों
का प्रयोग किया। ये शिल्पी अपने काम के लिए प्रसिद्ध थे। बाद में पश्चिम एशिया से
कुछ अनुभवी स्थापत्य शिल्पी भारत आये। तुर्कियों ने अपनी इमारतों में महराबों और गुम्बदों
का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। इनमें न तो महराब और न ही गुम्बद तुर्की या अरबी
खोज है। अरबों ने इस शिल्प को विज्रन्टाइन साम्राज्य के माध्यम से रोम से ग्रहण किया था। फिर उसका विकास करके उन्होंने इस शिल्प
को अपनी रंगत दे दी थी।
महराब तथा गुम्बद का प्रयोग
महराब और गुम्बदों
के इस्तेमाल के कई लाभ थे। गुम्बद भव्य आकाश-रेखाओं का निर्माण करते थे। फिर
जैसे-जैसे स्थापत्य शिल्पी अनुभव प्राप्त करके आर्थिक आत्म-विश्वास प्राप्त करते
गए, वैसे-वैसे गुम्बदों की ऊँचाई बढ़ती गई। वर्गाकार इमारतों पर
गोल गुम्बद बनाने और उन्हें और ऊँचा बनाने के कई प्रयोग हुए। इस प्रकार कई
बड़ी-बड़ी और भव्य इमारतों का निर्माण हुआ। महराबों और गुम्बदों के निर्माण से
स्तम्भों की आवश्यकता कम हो गई, क्योंकि बड़े-बड़े
भवनों के निर्माण में कई स्तम्भों की आवश्यकता पड़ती थी। ताकि सब कुछ साफ़ दिखाई
दे और छत भी टिकी रहे। लेकिन महराबों और गुम्बदों के निर्माण के लिए मज़बूत
सीमेन्ट की जरूरत थी। इसके बिना पत्थर नहीं जोड़े जा सकते थे। तुर्क अपनी इमारतों
में बढ़िया क़िस्म का चूना इस्तेमाल करते थे। इस प्रकार तुर्कों के आगमन के साथ ही
भारत में नयी स्थापत्य शैलियों और बढ़िया क़िस्म के चूने का इस्तेमाल शुरू हुआ।
महराब और गुम्बदों
का निर्माण भारतीय पहले से जानते थे, लेकिन उनका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर नहीं होता था। इसके अतिरिक्त महराब बनाने
का सही वैज्ञानिक तरीक़ा कभी-कभी ही अपनाया जाता था। महराब बनाने का भारतीय तरीक़ा-अन्तर
कम करते हुए एक के बाद दूसरा पत्थर वहाँ तक जमाते जाने का था, जब तक कि ऊपर एक सिल या नुकीला पत्थर जमाया जा सके। तुर्क
शासकों ने गुम्बद और महराब तथा शिला और शहतीर दोनों विधियों का प्रयोग किया।
अलंकरण प्रयोग
अलंकरण के क्षेत्र में तुर्क मानव और पशु
आकृतियों का प्रयोग नहीं करते थे। इसके स्थान पर ज्यामितीय और फूलों के नमूने
बनाते थे और उसके साथ क़ुरान की आयतें ख़ुदवाते थे। इस प्रकार अरबी लिपि भी कला का नमूना बन गई। अलंकरण की यह संयुक्त विधि 'अरबस्क' कहलाती है। वे अधिकतर हिन्दू अलंकरण के नमूने भी अपनाते थे, जैसे घंटियों क नमूने, बेल के नमूने, स्वास्तिक, कमल के फूल इत्यादि, इस प्रकार भारतीयों की तरह तुर्क भी अलंकरण के प्रति गहरी रुचि रखते थे। इस
कार्य के लिए पत्थर काटने वाले भारतीय कौशल का उन्होंने पूरा उपयोग किया। इल्तुतमिश के छोटे से मक़बरे, दिल्ली में क़ुतुबमीनार के निकट, पर इतना महीन काम किया गया कि एक इंच ख़ाली जगह भी नहीं छोड़ी गई। तुर्क लाल रंग के पत्थर का प्रयोग करके अपनी इमारतों को रंगीन भी बनाते
थे। लाल रंग को हल्का रखने की गर्ज से अलंकरण के लिए इनमें पीला पत्थर और संगमरमर
भी इस्तेमाल होता था।
तुर्कों की भव्य
इमारत तेरहवीं शताब्दी में बनाई गई क़ुतुबमीनार है। यह मीनार मूल रूप से 71.4 मीटर ऊँची थी और दिल्ली
निवासियों के प्रिय सूफ़ी संत 'क़ुतुबुद्दीन
बख़्तयार काकी' की स्मृति में इल्तुतुमिश न बनवायी थी। स्तम्भ बनवाने की
परम्परा भारत और पश्चिम एशिया दोनों स्थानों पर मिलती है, तथापि क़ुतुबमीनार कई दृष्टियों से अलग थी। इसकी प्रभावोत्पादक्ता इस बात में
है कि इसमें छज्जे हैं, किन्तु वे मुख्य स्थम्भ से जुड़े हुए हैं। दीवारों में और
ऊपर की मंज़िलों में लाल और सफ़ेद पत्थर का और संगमरमर का प्रयोग है। इसको देखकर पसलोदार
इमारत का आभास होता है।
ख़िलजीकालीन इमारतें
ख़िलजी काल में अनेक इमारतें बनीं। अलाउद्दीन ने सीरी में अपनी राजधानी बनायी, जो क़ुतुब से कुछ ही किलोमीटर की दूर पर है। दुर्भागय से इस
शहर का अब कुछ भी शेष नहीं है। अलाउद्दीन की योजना क़ुतुब से दोगुनी ऊँचाई का
मीनार बनाने की थी, लेकिन वह उसको पूरा कराने से पहले ही मर गया। फिर भी, उसने क़ुतुब के साथ प्रवेश द्वार का निर्माण अवश्य करवाया।
यह दरवाज़ा इलाही दरवाज़ा कहलाता है और इसकी महराबों में अदभुत संतुलन है। इस पर
एक गुम्बद भी है। जिसके निर्माण में पहली बार सह वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया
गया था। अतः यह स्पष्ट है कि इस काल तक भारतीय कारीगरों ने महराब और गुम्बद बनाने
की वैज्ञानिक विधि को आत्मसात् कर लिया था।
तुग़लक-कालीन स्थापत्य
तुग़लक़ वंश का काल, जो कि दिल्ली सल्तनत के चरमोत्कर्ष का काल भी है और उसके विघटन का पहला बिन्द
भी, में भी अनेक इमारतों का निर्माण हुआ। ग़यासुद्दीन और मुहम्मद तुग़लक ने तुग़लकाबाद में अनेक महलों और क़िलों का निर्माण करवाया। यमुना के जल को रोककर एक विशाल झील का निर्माण किया गया। ग़यासुद्दीन का मक़बरा एक नयी
स्थापत्य शैली की ओर संकेत करता है। इसमें ऊँचाई का आभास देने के लिए इमारत को एक
ऊँचे चबूतरे पर बनाया गया और उसके ऊपर संगमरमर का गुम्बद बनाया गया।
तुग़लक स्थापत्य
शैली की विशेषता ढलवां दीवारें हैं। इसे 'सलामी' कहा जाता है और इससे मज़बूत तथा ठोस होने का आभास मिलता है।
लेकिन फ़िरोज शाह तुग़लक़ द्वारा बनवायी गई इमारतों में 'सलामी' का प्रयोग नहीं मिलता। तुग़लक स्थापत्य की दूसरी विशेषता
महराब, द्वाराग्रकाष्ठ और शहतीर के सिद्धांतों का सायास सम्मेलन
है। फ़िरोज तुग़लक की इमारतों में उस शैली का प्रयोग बहुतायत से मिलता है। हौजखास, जिसे आमोद-प्रमोद के लिए बनवाया गया था और जिसके चारों ओर
विशाल झील थी, इस शैली का उदाहरण है। इसकी एक मंज़िल में यदि महराबों का
प्रयोग है तो दूसरी में शहतीरें और लिंटल का। फ़िरोज के नये क़िले, जिसे अब कोटला कहा जाता है, की कुछ इमारतों में भी इस शैली का प्रयोग हुआ है। तुग़लक अपनी इमारतों में
मंहगा लाल पत्थर इस्तेमाल नहीं करते थे। वे आसानी से उपलब्ध मटमैला पत्थर लगाते
थे। इसलिए तुग़लकी इमारतों में बहुत कम अलंकरण मिलता है। लेकिन फ़िरोज की सभी
इमारतों में अलंकरण के लिए कमल का प्रयोग हुआ है।
लोदीकालीन इमारतें
इस काल में अनेक सुन्दर मस्जिदों का भी
निर्माण हुआ। यहाँ सब का वर्णन करना सम्भव नहीं है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि
भारत में उस काल तक स्थापत्य की एक स्वतंत्र शैली का विकास हो
चुका था, जिसमें स्थानीय शिल्प और तुर्क-शिल्प का मिश्रण था।
लोदियों ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया। उनकी इमारतों में महराब तथा
शहतीर और लिंटल, दोनों का प्रयोग हुआ है। इनमें राजस्थानी-गुजराती शैली के
छज्जों, मण्डपों और गुफाओं का भी प्रयोग मिलता है। लोदियों ने एक और
शैली का भी प्रयोग किया। वह थी इमारतों को एक विशेषतः मक़बरों को ऊँचे चबूतरों पर
बनाना ताकि वे बड़ी और ऊँची लगें। कुछ मक़बरे उद्यानों के मध्य में बनाये गये हैं।
दिल्ली में लोदी उद्यान इसका सुन्दर उदाहरण है। कुछ मक़बरे अष्टकोणी बनाये गये।
इनमें से कुछ विशेषताओं को बाद में मुग़लों ने भी अपनाया। शाहजहाँ द्वारा निर्मित ताजमहल इसी का परिणाम है।
दिल्ली सल्तनत का विघटन होने के समय तक भारत के अनेक भागों में फैले राज्यों में अपनी-अपनी स्थापत्य
शैलियों का विकास भी हो चुका था। इनमें से भी अनेक स्थानीय शैलियों से प्रभावित
हुईं। जैसा कि बंगाल, गुजरात, मालवा और दक्षिण इत्यादि में ऐसा ही हुआ। इस प्रकार चौदहवीं और
पंद्रहवीं शताब्दी में देश के विभिन्न भागों में स्वतंत्र शैलियों के प्रयोग से
मुक्त अनेकानेक इमारतों का निर्माण हुआ। तुग़लकों के शासन काल में दिल्ली में विकसित स्थापत्य शैली इस प्रकार विभिन्न क्षेत्रीय
राज्यों में अपनायी गई और उसमें परिवर्तन भी किए गए।
धार्मिक विचार और विश्वास
उत्तर भारत में जब तुर्कों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, तब इस्लाम भारत के लिए नया नहीं थां। पंजाब और मिस्र में इस्लाम की स्थापना नवीं-दसवीं शताब्दी में ही हो गई
थी। अरब यात्री भी उससे पहले ही केरल में बस गये थे। उस काल में अरब यात्री और सूफ़ी सारे देश
में भ्रमण करते थे। पश्चिम एशिया के लोग भी अलबेरूनी की पुस्तक, 'किताब-उल्-हिन्द' से परिचित हो चुके थे। उस समय तक बौद्ध-कथाओं, भारतीय लोक-गाथाओं, ज्योतिष शास्त्र और चिकित्सा शास्त्र पर अनेक पुस्तकों का अरबी में अनुवाद हो चुका था। भारतीय योगियों की यात्राएँ भी
उनके क्षेत्र में हुई थीं। इस्लाम पर बौद्ध दर्शन और वेदान्त का प्रभाव विद्वानो के लिए वाद-विवाद का विषय रहा है। अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया के कुछ हिस्सों में, विशेष रूप से प्राचीन व्यापार मार्गों के आस-पास बौद्ध बिहारों, स्तूपों और बुद्ध की मूर्तियों के भग्नावशेष किसी समय बौद्ध-प्रभाव की
व्यापकता का संकेत करते हैं।
यह तय कर पाना तो
कठिन है कि इस्लाम पर भारतीय दर्शन का प्रभाव कितना है, लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस्लाम के विकास काल
में उस पर यूनानी और भारतीय दर्शनों का अलग-अलग अनुपातों में निश्चित प्रभाव
पड़ा था। इन विचारों ने सूफ़ी मत के विकास की पृष्ठभूमि तैयार की। बारहवीं शताब्दी के बाद
भारत में पाँव जमाने के पश्चात सूफ़ी मत ने हिन्दू और मुस्लिमों के लिए सामान्य मंच उपलब्ध किया। लेकिन, कुछ विद्वानों का मत है कि यौगिक क्रियाओं सहित अनेक
कर्मकाण्डों को आरम्भिक सूफ़ियों के द्वारा अपनाकर अपने तंत्र में सम्मिलित करने
के बावजूद उनकी वैचारिक संरचना इस्लामी ही रही।
सूफ़ी मत
इस्लामी इतिहास
में दसवीं शताब्दी अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसी समय अब्बासी
ख़िलाफ़त के अवशेषों से तुर्कों का उदय हुआ और इसी काल में दर्शन और विश्वासों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। दर्शन के
क्षेत्र में इस समय मुताजिल अथवा तर्क-बुद्धिवादी दर्शन का आधिपत्य समाप्त हुआ, जो क़ुरान और हदीस, हज़रत मुहम्मद और उनके सहयोगियों की परम्परा, पर आधारित थी। इसी समय सूफ़ी रहस्यवाद का जन्म हुआ।
तर्क-बुद्धिवादियों पर संशयवाद और नास्तकिता फैलाने का आरोप लगाया गया। विशेष रूप
से तर्क दिया गया कि अद्धैतवादी दर्शन, जो ईश्वर और उसकी सृष्टि के मूल रूप से एक होने की बात करता है, इसलिए धर्मद्रोही है क्योंकि इससे सृष्टा और सृष्टि में भेद
समाप्त हो जाता है।
भारत में प्रवेश
परम्परावादियों की
रचनाएँ इस्लामी काल की चार विचारधाराओं में बंट गई। इनमें से हनफ़ी विचारधारा सबसे
अधिक उदारवादी थी। इसे ही पूर्वी तुर्कों ने अपनाया और ये पूर्वी तुर्क ही
कालान्तर में भारत आये। रहस्यवादियों का जन्म इस्लाम के अंतर्गत बहुत पहले ही हो गया था। इन लोगों को ही बाद के
समय में 'सूफ़ी' कहा जाने लगा।
इनमें से अधिकांश ऐसे थे, जो महान भक्त थे और समृद्धि के भोंडे प्रदर्शन और इस्लामी साम्राज्य की
स्थापना के बाद उत्पन्न नैतिक-पतन के कारण दुखी थे। अतः इन सूफ़ियों को राज्य से
कोई सरोकार नहीं था। ये लोग बादशाहों, राजा और महाराजाओं द्वारा प्रदान किये जाने वाले दान-उपहार आदि को स्वीकार
नहीं करते थे। बाद के आने वाले समय में भी उनमे यह परम्परा जारी रही। महिला
रहस्यवादी 'रबिया' (मृत्यु आठवीं
शताब्दी) और 'मंसूर-बिन-हलाज' (मृत्यु दसवीं शताब्दी) जैसे प्रारम्भिक सूफ़ियों ने ईश्वर और व्यक्ति के बीच
प्रेम सम्बन्ध पर बहुत बल दिया। किन्तु उनकी सर्वेश्वरवादी दृष्टि के कारण उनमें
और परम्परावादी तत्वों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। इन परम्परावादियों
ने अफ़वाहों के बल पर मंसूर को फाँसी लगवा दी। इसके बावजूद मुस्लिम जनता में सूफ़ीवादी विचार जड़ जमाते गये।
भक्ति आन्दोलन
वेद
तुर्कों के भारत आगमन से काफ़ी पहले से
ही यहाँ एक 'भक्ति आन्दोलन' चल रहा था, जिसने व्यक्ति और ईश्वर के बीच रहस्यवादी सम्बन्ध को बल
देने का प्रयत्न किया। यद्यपि भक्ति के बीज वेदों में ही प्राप्त हो जाते हैं, किन्तु प्रारम्भ में इस पर इतना बल नहीं दिया गया था। बौद्ध मत के प्रसार के समान्तर ही व्यक्तिगत ईश्वर की उपासना के
विचार की उत्पत्ति हुई जान पड़ती है। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में महायान
बौद्धों ने बुद्ध के अवलोकित रूप की पूजा प्रारम्भ कर दी थी। विष्णु की पूजा का प्रचलन भी इसके साथ-साथ हुआ। गुप्त काल में 'रामायण' और 'महाभारत' जैसी पवित्र पुस्तकों को फिर से लिखा गया तो ज्ञान और कर्म
के साथ-साथ भक्ति को भी मुक्ति का एक मार्ग स्वीकार कर लिया गया। परन्तु भक्ति
आंदोलन की जड़ें सातवीं से बारहवीं शताब्दी के मध्य दक्षिण भारत में ही जमीं। जैसा कि पहले पहले ही ज्ञात था, शैव नयनार और वैष्णव अलवार जैनियों और बौद्धों के अपरिग्रह
को अस्वीकार कर ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत भक्ति को ही मुक्ति का मार्ग बताते हैं।
वे वर्ण और जाति-भेद को भी अस्वीकार करते थे। उन्होंने प्रेम और व्यक्तिगत ईश्वर
भक्ति का संदेश समस्त दक्षिण भारत में स्थानीय भाषाओं का प्रयोग करके पहुँचाया।
प्रचार-प्रसार
यद्यपि दक्षिण और उत्तर भारत के मध्य सम्पर्क के अनेक सूत्र थे, फिर भी दक्षिण से उत्तर भारत तक भक्ति आन्दोलन के प्रसार में काफ़ी समय लगा।
यह आश्चर्यजनक है कि जिन कारणों से नयनार
और अलवार भक्ति दक्षिण में जल्दी ही प्रसिद्ध हो गये, उन्हीं कारणों से अन्य क्षेत्रों में उनकी प्रसिद्धि सीमित
रही। कारण उनका स्थानीय भाषाओं में काव्य रचना करना और उपदेश देना था। उस काल तक संस्कृत ही विचार-सम्प्रेषण का माध्यम थी। उत्तर में संत और विचारक दोनों ही भक्ति दर्शन लाये। इनमें कुछ का उल्लेख
करना उचित होगा। महाराष्ट्र के संत नामदेव चौदहवी शताब्दी के पूर्वाह्र में हुए थे, और रामानंद का समय चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और पंद्रहवीं
शताब्दी के पहले पच्चीस वर्षों तक माना जाता है। उनका काव्य, जो मराठी भाषा में है, ईश्वर के प्रति
गहरे प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। कहा जाता है कि नामदेव दूर-दूर तक यात्रा
करते थे और दिल्ली में सूफ़ी संतों के साथ विचार-विमर्श किया था। रामानंद रामानुज के शिष्य थे। उनका जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ था और वे प्रयाग तथा बनारस में रहते थे। उन्होंने विष्णु के स्थान पर राम की भक्ति आरम्भ की। इससे भी अधिक उन्होंने चारों वर्णों को
भक्ति का उपदेश दिया और निम्न वर्ण के लोगों के साथ खान-पान पर निषेघ का विरोध
किया। उनके शिष्यों में सब जातियों के लोग थे। इनमें अनेक शूद्र भी थे। इनके शिष्यों में से रविदास चमार थे, कबीर जुलाहे थे, सेना नाई थे और साधना कसाई थे। नामदेव भी शिष्यों के चुनाव में विशाल ह्रदय से काम लेते थे।
आन्दोलन की व्यापकता
इन संतों के
द्वारा फैलाये गये बीज उपजाऊ भूमि पर पड़े थे। राजपूत राजाओं की पराजय और तुर्कों की सल्तनत स्थापित हो जाने के
बाद ब्राह्मणों का आदर और उनकी शक्ति कम हो गई थी। परिणामतः नाथपंथ जैसे वे आंदोलन, जो वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणों के श्रेष्ठत्व को चुनौती देते थे, पनपने लगे और उन्हें लोकप्रियता मिली। यह सूफ़ी के द्वारा
प्रचारित इस्लाम में समानता और भ्रातृत्व के विचारों के समान्तर था। जन
सामान्य धर्म के प्राचीन रूप से संतुष्ट नहीं था। वे ऐसा धर्म चाहते थे, जो उनके तर्क और
भावना दोनों पर खरा उतरे। इन्हीं कारणों से पंद्रहवीं और चौदहवीं शताब्दी में
उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन व्यापक होता चला गया।
गुरु नानक का लक्ष्य नये धर्म की स्थापना करना नहीं था। उनका
पवित्रतावादी दृष्टिकोण शान्ति, सम्भावना और
भाईचारा स्थापित करने के लिए हिन्दू और मुसलमानों के बीच खाई पाटने का लक्ष्य लेकर
था। विद्वानों ने इस विषय में अनेक विचार प्रस्तुत किए हैं कि उनके विचारों का
हिन्दू और मुसलमानों पर काफ़ी प्रभाव पड़ा। इस बात के लिए तर्क प्रस्तुत किए जाते
हैं कि धर्म का पुराना स्वरूप लगभग अपरिवर्तित रहा। न ही वर्ण-व्यवस्था को तोड़ा
जा सका। फिर धीरे-धीरे नानक के विचारों ने एक नये मत सिक्ख धर्म को जन्म दिया और कबीर के अनुयायी धीरे-धीरे कबीर पंथ नाम के एक नये पंथ में सिमट कर रह गये। लेकिन कबीर और नानक
के लक्ष्यों को एक उदार दृष्टि से देखना चाहिए। उन्होंने एक ऐसा जनमत तैयार किया, जो शताब्दियों तक काम करता रहा। यह भली-भाँति विदित है कि अकबर की धार्मिक और राजनीतिक नीतियों में इन दो महान संतों के
उपदेशों को लक्षित किया जा सकता है। इन नीतियों पर चलने वाला अकबर अकेला ही नहीं
था। लेकिन, यह आशा भी नहीं करनी चाहिए कि दोनों मुख्य धर्मों-हिन्दू और
इस्लाम के परम्परावादी तत्व बिना किसी संघर्ष के हथियार डाल देते। इन दो विरोधी
धाराओं, जिनमें से एक उदार और एक असाम्प्रदायिक थी, और दूसरी पुरातन पंथी और परम्परावादी के बीच का संघर्ष
सोलहवीं, सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दियों में बुद्धिवादी और धार्मिक
मतभेदों के केन्द्र में रहा। इसी अविरल संघर्ष से यह पता चलता है कि जो विचार और
स्वरूप कबीर, नानक या उसी तरह के सोचने वाले और लोगों ने सामने रखा, उनका प्रभाव किसी भी तरह से कम नहीं है।
वैष्णव आन्दोलन
वैष्णव आन्दोलन उत्तर भारत में विष्णु के दो अवतार राम और कृष्ण के प्रति भक्ति भावना को लेकर चलाया गया भक्ति आन्दोलन था। कृष्ण की बाल लीला और गोकुल की गोपियों और विशेषतः राधा के साथ रासलीला भक्त कवियों का प्रिय काव्य बन गया।
इसे आत्मा और परमात्मा के बीच प्रेम के अनेक रूपों के प्रतीक के रूप
में उन्होंने प्रयुक्त किया। प्रारम्भिक सूफ़ियों की भाँति ही चैतन्य महाप्रभु ने संगीत मण्डलियाँ जोड़ी और कीर्तन को आध्यात्मिक अनुभूति के लिए
प्रयुक्त किया, जिसमें ईश्वर का नाम लेने से बाह्य संसार की सुध नहीं रहती।
भक्त कवियों का योगदान
ऐसा माना जाता है
कि चैतन्य ने वृन्दावन सहित सारे भारत का भ्रमण किया था। वृन्दावन में उन्होंने कृष्ण भक्ति की
पुनःस्थापना की। परन्तु, उन्होंने अपना अधिकांश समय गया में व्यतीत किया था। उनका प्रभाव व्यापक था। पूर्वी भारत में तो यह प्रभाव और भी गहरा था। इनके कीर्तनों में हिन्दू और मुसलमान दोनों जाते थे। इनमें निम्न जातियों के लोग भी होते थे।
चैतन्य ने धार्मिक ग्रंथों या मूर्तिपूजा का विरोध नहीं किया, लेकिन उन्हें परम्परावादी भी नहीं कहा जा सकता। गुजरात के नरसिंह मेहता, राजस्थान की मीरा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सूरदास और बंगाल तथा उड़ीसा के चैतन्य का लक्ष्य गीति-काव्य और प्रेम की अदभुत ऊँचाई
पर पहुँचा, जो वर्ण और जाति की सीमाओं को पार कर गया।
साहित्य
इस काल में संस्कृत उच्च विचारों के सम्प्रेषण और साहित्य का माध्यम बनी रही। वस्तुतः विभिन्न विधाओं में संस्कृत
ग्रंथों की विपुल मात्रा में रचना हुई, सम्भवतः पूर्व कालों से भी अधिक।
संस्कृत साहित्य
शंकराचार्य के अनुसरण में अद्धैत दर्शन पर रामानुज, माधवाचार्य, वल्लभ इत्यादि की रचनाएँ प्रकाश में आती हैं। उनके विचारों के
तेज़ी से प्रसार और उन पर हुई बहसों से इस बात का संकेत मिलता है कि संस्कृत के उस
काल में कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। मुस्लिम क्षेत्रों सहित देश के विभिन्न
भागों में अनेक विशेष विद्यालय और अकादमियाँ थीं। इन विद्यालयों और अकादमियों के
कार्यों में हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। अतः वे पल्लवित होती रहीं। वास्तव में
उनमें से अनेक ने काग़ज़ के आविष्कार का लाभ उठाया और अनेक प्राचीन ग्रंथों का
पुनरुत्थान और प्रसार किया। यही कारण है कि रामायण और महाभारत के कई प्राचीनतम संस्करण ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के
हैं।
ग्रंथ रचनाएँ
दर्शन शास्त्र के
अतिरिक्त काव्य-नाट्य, कला, चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र और संगीत इत्यादि पर भी काम होता रहा। अनेक टीकाएँ और धर्मशास्त्र
पर सार बारहवीं से सोलहवीं शताब्दियों के बीच लिखे गये। विज्ञानेश्वर का महान 'मिताक्षर'
भी, जो दो हिन्दू धर्म शास्त्र की विचारधाराओं का सम्मिलन है, बारहवीं शताब्दी से पहले का नहीं है। एक अन्य व्याख्याकार बिहार के चण्देश्वर हुए हैं, जो चोदहवीं शताबदी के हैं। उस काल में अधिकांश ग्रंथों की रचना दक्षिण में
हुई। उसके बाद बंगाल, मिथिला और पश्चिम भारत का क्रम आता है। उस कार्य को हिन्दू शासकों का संरक्षण मिला। जैनों ने भी संस्कृत के विकास में योगदान दिया। हेमचंद्र सूरि उनमें प्रमुख
हैं। यह आश्चर्यजनक है कि उन्होंने अधिकांशतः भारत में मुसलमानों की उपस्थिति पर
कोई ध्यान नहीं दिया। इस्लामी ग्रंथों या फ़ारसी ग्रंथों को संस्कृत में अनूदित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। सम्भवतः
प्रसिद्ध फ़ारसी कवि जामी द्वारा रचित 'युसुफ़ और ज़ुलेखा
की प्रेम-कथा' का अनुवाद ही इसका अपवाद है। सम्भवतः यह पूर्व-व्यक्त अलबेरूनी के विचार के कारण था। वास्तविकता से इंकार ही सम्भवतः इस
बात का कारण था कि उस काल का अधिकांश साहित्य पुनरावृत्ति है और उसमें नयी दृष्टि या मौलिकता नहीं
मिलती।
मुस्लिम साहित्य
हालाँकि मुस्लिमों
का अधिकांश साहित्य अरबी में लिखा गया था, जो पैगम्बर मुहम्मद की भाषा थी और स्पेन से लेकर बग़दाद तक साहित्य की भाषा थी, लेकिन भारत आने वाले तुर्क, फ़ारसी भाषा से बहुत प्रभावित थे। फ़ारसी दसवीं शताब्दी से ही मध्य एशिया की साहित्यिक और प्रशासकीय भाषा बन गयी थी।
अरबी तथा फ़ारसी का प्रयोग
भारत में अरबी
भाषा का प्रयोग इस्लामी विद्वानों और दार्शनिकों के छोटे से वर्ग तक ही सीमित रहा, क्योंकि उस विषय का अधिकांश साहित्य अरबी में ही था।
धीरे-धीरे इस्लामी विधान फ़ारसी में भी तैयार किए गये। उसमें भारतीय विद्वानों की
भी मदद ली गई। उनमें से अधिकांश सार फ़िरोज शाह तुग़लक़ के शासन काल में तैयार हुए। परन्तु अरबी में भी सार लिखे
जाते रहे। उनमें से सबसे प्रसिद्ध "फ़तवा-ए-आलमगीरी" है, जो औरंगज़ेब के शासन काल में विधिवेताओं के एक दल ने तैयार किया था।
दसवीं शताब्दी में
तुर्कों के भारत आगमन के साथ ही यहाँ एक नयी भाषा 'फ़ारसी' आई। इसी समय ईरान और मध्य एशिया में फ़ारसी का पुनरुत्थान शुरू हुआ था। फ़िरदौसी और सादी
जैसे फ़ारसी के महानतम कवियों का रचनाकाल दसवीं और चौदहवीं शताब्दी के मध्य ही है।
तुर्कों ने शुरू से ही साहित्य और प्रशासन के लिए फ़ारसी का इस्तेमाल किया गया। इस
प्रकार, फ़ारसी के विकास के लिए लाहौर पहला केन्द्र बन गया। भारत में फ़ारसी लेखकों की कुछ
रचनाएँ ही उपलब्ध हैं। मसूद सासद सलमान जैसे लेखकों की रचनाओं में लाहौर के प्रति
प्रेम और लगाव मिलता है। इस काल के सबसे अधिक उल्लेखनीय फ़ारसी लेखक अमीर ख़ुसरो हैं। पटियाली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बदायूँ के पास, में 1252 में
जन्मे अमीर ख़ुसरो को भारतीय होने पर गर्व था। वह कहता है कि, "मैंने दो कारणों से हिन्दुस्तान की प्रशंसा की है। पहला
कारण है कि हिन्दुस्तान मेरी जन्म भूमि और हमारा देश है। देश को प्यार करना
महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। हिन्दुस्तान जन्नत की तरह है। सारा साल हराभरा और फूलों
से भरा रहता है। यहाँ के ब्राह्मण अरस्तु की तरह विद्वान हैं और कई क्षेत्रों में अनेक विद्वान
हैं..."।
अमीर ख़ुसरो का योगदान
भारत के प्रति
अमीर ख़ुसरो का प्रेम इस बात की ओर संकेत करता है कि तुर्की शासक वर्ग विदेशी शासक
के रूप में व्यवहार करना नहीं चाहता था और उनके तथा भारतीयों के बीच एक सांस्कृतिक
आदान-प्रदान की भूमि तैयार हो चुकी थी। ख़ुसरो ने अनेक काव्यों की रचना की, जिसमें ऐतिहासिक रोमांस भी है। उसने सभी काव्य शैलियों का
प्रयोग किया और एक नयी फ़ारसी शैली का निर्माण किया, जो बाद में 'सबक-ए-हिन्दी' या 'भारतीय शैली' कहलायी। ख़ुसरो ने हिन्दी, जिसे उसने 'हिन्दवी' कहा है, सहित भारतीय
भाषाओं की प्रशंसा की है। उसकी कुछ मुक्तक हिन्दी कविताएँ मिलती हैं। लेकिन हिन्दी
काव्य 'ख़ालिक़-बारी', जिसे ख़ुसरो रचित कहा जाता है, उसी नाम के बाद के किसी कवि कि रचना जान पड़ती है। वह एक प्रवीण संगीतज्ञ भी
था और धार्मिक संगीत सभाओं (समा) में भाग लेता था। इन सभाओं का आयोजन प्रसिद्ध
सूफ़ी संत निज़ामुद्दीन औलिया करते थे। कहा जाता है कि ख़ुसरो ने अपने पीर निज़ामुद्दीन
औलियो की मृत्यु (1325) का समाचार जानने के दूसरे ही दिन प्राण त्याग दिए। उसे उसी
स्थान पर दफ़नाया गया।
फ़ारसी का प्रभाव
इस काल में भारत
में काव्य के अलावा फ़ारसी में इतिहास लेखन की एक दृढ़ शाखा का भी विकास हुआ। इस काल के सर्वाधिक
प्रसिद्ध इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी, आसिफ़ और इसामी हुए। फ़ारसी भाषा के माध्यम से भारत मध्य
एशिया और ईरान के साथ नज़दीकी सांस्कृतिक सम्बन्ध बना सका। धीरे-धीरे फ़ारसी न
सिर्फ प्रशासन और राजनयिक भाषा बनी बल्कि उच्च-वर्गों और उनके मातहतों की भाषा भी
बन गई और इस भाषा ने यहाँ अपना प्रभाव जमा लिया। ये भाषा भारत पर एक लम्बे समय तक
राज्य करये वाले मुग़ल वंश की प्रमुख भाषा थी। पहले यह उत्तर भारत में प्रशासकीय भाषा बनी और बाद में दिल्ली सल्तनत के विस्तार के साथ दक्षिण भारत में तथा देश के विभिन्न भागों में एवं मुस्लिम शासन स्थापित होने पर सारे भारत में।
संस्कृत पुस्तकों का फ़ारसी अनुवाद
इस प्रकार संस्कृत
और फ़ारसी मुख्य रूप से सम्पर्क भाषाओं का कार्य करती रही और राजनीति, धर्म, दर्शन और साहित्य का कार्य भी उन भाषाओं में होता रहा। पहले दोनों के मध्य
बहुत आदान-प्रदान था। ज़िया नक़्शबी (मृत्यु 1350) पहला व्यक्ति था, जिसने संस्कृत कथाओं की एक शृंखला, जिसके अंतर्गत एक तोता एक ऐसी विरहिणी नायिका को कहानि
सुनाता है, जिसका पति यात्रा पर गया था, का फ़ारसी में अनुवाद किया था। यह पुस्तक "तूती नामा" जिसकी रचना मुहम्मद तुग़लक़ के समय हुई थी, बहुत लोकप्रिय हुई और फ़ारसी से उसका अनुवाद तुर्की और अनेक यूरोपीय भाषाओं
में भी हुआ। उसने प्राचीन भारतीय 'कामशास्त्र' पर पुस्तक "कोकशास्त्र" को भी फ़ारसी में अनूदित
किया। बाद में फ़िरोज़ शाह के समय में चिकित्सा और संगीत शास्त्र पर संस्कृत की
पुस्तकों का फ़ारसी में अनुवाद हुआ। कश्मीर के सुल्तान ज़ैन-उल-आबेदीन ने प्रसिद्ध इतिहास पुस्तक 'राजतरंगिणी' तथा 'महाभारत' का फ़ारसी में अनुवाद करवाया। उसके संकेत पर चिकित्सा तथा
संगीत शास्त्र पर भी संस्कृत पुस्तकों का अनुवाद किया गया।
क्षेत्रीय भाषाएँ
इस काल में अनेक
क्षेत्रीय भाषाओं में भी उच्च कोटि की रचनाएँ लिखी गईं। इनमें से कुछ भाषाओं जैसे हिन्दी, बंगाली और मराठी, की उत्पत्ति आठवीं शताब्दी में हुई थी। तमिल आदि कुछ भाषाएँ अधिक प्राचीन हैं। चौदहवीं शताब्दी के कवि अमीर ख़ुसरो ने क्षेत्रीय भाषाओं का अस्तित्व पहचानते हुए कहा था कि
"ये ज़ुबानें रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में बहुत लम्बे वक्त से इस्तेमाल की जाती
रही हैं।"
इन भाषाओं के
द्वारा परिवक्वता प्राप्त करना और साहित्यिक भाषाओं के रूप में उनका प्रयोग मध्यकालीन भारत की एक विशेषता है। इसके कई कारण है। सम्भवतः ब्राह्मणों का
महत्व कम हो जाने के कारण संस्कृत का महत्व भी कम हो गया था। भक्त कवियों के द्वारा जनभाषा का प्रयोग निःसंदेह इन भाषाओं के
विकास में महत्त्वपूर्ण था। वस्तुतः देश के अनेक हिस्सों में संतों ने इन भाषाओं
को साहित्यिक भाषा के रूप में ढालने का काम किया था। ऐसा लगता है कि तुर्क-पूर्व
काल में कई क्षेत्रीय राज्यों में संस्कृत के साथ-साथ तमिल, कन्नड़, मराठी आदि का प्रयोग प्रशासन में किया जाता रहा होगा। यह
तुर्क शासन में भी चलता रहा, क्योंकि हिन्दी
जानने वाले राजस्व लेखाकारों की दिल्ली सल्तनत में नियुक्ति के संकेत मिलते हैं। बाद में भी, जब दिल्ली सल्तनत का विघटन हो गया, हिन्दी-फ़ारसी के साथ-साथ कई क्षेत्रीय भाषाएँ राज्यों में
प्रशासकीय मामलात में प्रयुक्त होती रही। इसी प्रकार दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य के सरंक्षण में तेलुगु साहित्य पनपा। बहमनी साम्राज्य में मराठी प्रशासन की एक भाषा रही, और बाद में बीजापुर के दरबार की भाषा बनी। बाद में, जब इन भाषाओं का समुचित विकास हो गया, तो कुछ मुस्लिम शासकों ने भी इन्हें साहित्य रचना के लिए संरक्षण दिया। उदाहरण के लिए, बंगाल के नसरहशाह ने 'महाभारत' और 'रामायण' का बंगाली में अनुवाद करवाया। उसी के संरक्षण में बसु ने 'भागवत' का बंगाली में अनुवाद किया। नुसरतशाह द्वारा बंगाली कवियों
को संरक्षण देने की बात का भी उल्लेख मिलता है।
सूफ़ी संतों के द्वारा अपनी संगीत भाषाओं-'समा' में हिन्दी भक्ति काव्य के प्रयोग की चर्चा भी की जा चुकी
है। जौनपुर के मलिक मुहम्मद जायसी जैसे सूफ़ी संतों ने हिन्दी में काव्य रचना की और सूफ़ी मत को इस रूप में प्रस्तुत किया की सामान्य जनता उन्हें समझ
सके। इन सूफ़ी कवियों ने फ़ारसी की मसनबी शैली को लोकप्रिय बनाया।
ललित कलाएँ
पारस्परिक समझ और
एकीकरण की प्रवृत्तियाँ केवल धार्मिक विश्वासों और कर्मकाण्डों, सभापत्य और साहित्य में ही नहीं मिलती, वरन् ललित कलाओं के क्षेत्रों विशेषतः संगीत में भी मिलती है। जब तुर्क भारत आये तो अपने साथ ईरान और मध्य एशिया में पल्लवित समृद्ध अरबी संगीत परमपरा भी लाये। उनके पास
कई नये वाद्य थे, जैसे रबाब और सारंगी, और उनके पास नई संगीत पद्धति और नियम थे। सम्भवतः बग़दाद के ख़लीफ़ा के दरबार में भारतीय संगीत और संगीतकारों ने
वहाँ के संगीत के विकास पर अपना प्रभाव छोड़ा था। लेकिन दोनों के बीच विधिवत
सम्पर्क सल्तनत के अंतर्गत ही हुआ। अमीर ख़ुसरो के संगीत के सिद्धांत और कला दोनों पतों की जानकारी के कारण नायक की उपाधि मिली थी।
उसने ऐमान, घोरा, सनम जैसे अनेक
ईरानी-अरबी रागों को प्रचलित किया। सितार के निर्माण का श्रेय अमीर ख़ुसरो को दिया जाता है, लेकिन इसका प्रमाण उपलब्ध नहीं है। तबले के निर्माण के श्रेय भी उसी को प्रदान किया जाता है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि तबले का विकास सत्रहवीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध या अठारहवीं शताब्दी में ही हुआ।
फ़िरोजशाह तुग़लक़ के शासन में संगीत के एकीकरण की प्रक्रिया अनवरत चलती रही।
इसी समय शास्त्रीय रचना 'राग' दर्पण का फ़ारसी में अनुवाद हुआ। सूफ़ी संतों के आश्रमों के
साथ-साथ संगीत सभाएँ अब सामंतों के महलों में भी होने लगी। जौनपुर का शासक सुल्तान हुसैन शर्की, संगीत को बहुत संरक्षण देता था। वहाँ का सूफ़ी संत पीर बोधन
को उस काल का दूसरे नम्बर का संगीतकार माना जाता है। एक ओर क्षेत्रीय राज्य, जहाँ संगीत का बहुत विकास हुआ, ग्वालियर था। राजा मानसिंह की संगीत में बहुत रुचि थी। उसी के शासन में 'मन-कौतुहल' की रचना हुई। जिसमें मुसलिमों के द्वारा नयी संगीत
पद्धतियाँ भी सम्मिलित की गई थीं। इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत की संगीत पद्धतियों में अंतर आना कब शुरू हुआ। किन्तु इस
बात में संदेह कि गुंजाइश बहुत कम है कि यह अंतर ईरानी-अरबी पद्धतियों, रागों और वाद्यों के कारण ही आया। कश्मीर में फ़ारसी संगीत के अतिशय प्रभाव से एक सर्वथा नयी संगीत
शैली का जन्म हुआ।
जौनपुर विजय के
बाद सिकन्दर लोदी ने भी संगीत को संरक्षण देने की परम्परा का बड़े पैमाने पर पालन किया।
बाद में भारत में काफ़ी लम्बे समय तक राज्य करने वाले महान मुग़ल वंश के कई बादशाहों ने भी इस परम्परा को बनाये रखा।
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अविकसित देशों की
सांस्कृतिक समस्याएँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
[शीमा माजीद द्वारा संपादित फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के चुनिन्दा अंग्रेजी लेखों का
संग्रह 'कल्चर एंड आइडेंटिटी: सिलेक्टेड इंग्लिश राइटिंग्स ऑफ़ फैज़'
(ऑक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी प्रेस,2005) अपनी तरह का पहला संकलन है. इस संकलन
में फ़ैज़ के संस्कृति,कला, साहित्य,सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेख इसी
शीर्षक के पांच खण्डों में विभाजित है. इसके अलावा एक और 'आत्म-कथ्यात्मक'
खंड है,
जिसमें प्रमुख
है फ़ैज़ द्वारा 7 मार्च 1984 (अपने इंतकाल से महज़ आठ महीने पहले) को इस्लामाबाद
में एशिया स्टडी ग्रुप के सामने कही गई बातों की संपादित ट्रांसक्रिप्ट. पुस्तक की
भूमिका पाकिस्तान में उर्दू साहित्य के मशहूर आलोचक मुहम्मद रज़ा काज़िमी ने लिखी
है. शायरी के अलावा फ़ैज़ साहब ने उर्दू और अंग्रेजी दोनों भाषाओँ में साहित्यिक
आलोचना और संस्कृति के बारे में विपुल लेखन किया है. साहित्य की प्रगतिशील धारा के
प्रति उनका जगजाहिर झुकाव इस संकलन के कई लेखों में झलकता है. इस संकलन में शामिल
अमीर ख़ुसरो, ग़ालिब, तोल्स्तोय,
इक़बाल और
सादिकैन जैसी हस्तियों पर केन्द्रित उनके लेख उनकी 'व्यावहारिक आलोचना'
(एप्लाइड
क्रिटिसिज्म) की मिसाल हैं. यह संकलन केवल फ़ैज़ साहब के साहित्यिक रुझानों पर ही
रौशनी नहीं डालता बल्कि यह पाकिस्तान और समूचे दक्षिण एशिया की संस्कृति और विचार
की बेहद साफदिल और मौलिक व्याख्या के तौर पर भी महत्त्वपूर्ण है. इसी पुस्तक के एक
लेख 'कल्चरल प्रौब्लम्स इन अंडरडेवलप्ड कंट्रीज'
का हिन्दी
अनुवाद नया पथ के फ़ैज़ विशेषांक से साभार प्रस्तुत है - भारत भूषण तिवारी]
इंसानी समाजों
में संस्कृति के दो मुख्य पहलू होते हैं; एक बाहरी,औपचारिक और दूसरा आंतरिक,वैचारिक. संस्कृति के बाह्य स्वरूप,जैसे सामाजिक और कला-सम्बन्धी,संस्कृति के आंतरिक वैचारिक पहलू की संगठित
अभिव्यक्ति मात्र होते है और दोनों ही किसी भी सामाजिक संरचना के स्वाभाविक घटक
होते हैं.जब यह संरचना परिवर्तित होती है या बदलती है तब वे भी परिवर्तित होते हैं
या बदलते हैं और इस जैविक कड़ी के कारण वे अपने मूल जनक जीव में भी ऐसे बदलाव लाने
में असर रखते हैं या उसमें सहायता कर सकते हैं. इसीलिए सांस्कृतिक समस्याओं का
अध्ययन या उन्हें समझना सामाजिक समस्याओं अर्थात राजनीतिक और आर्थिक संबंधों की
समस्याओं से पृथक करके नहीं किया जा सकता. इसलिए अविकसित देशों की सांस्कृतिक
समस्याओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में मतलब सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में में
रखकर समझना और सुलझाना होगा.
फिर अविकसित देशों की मूलभूत सांस्कृतिक समस्याएँ
क्या हैं?
उनके उद्गम क्या
हैं और उनके समाधान के रास्ते में कौन से अवरोध हैं?
मोटे तौर पर तो
यह समस्याएँ मुख्यतः कुंठित विकास की समस्याएँ हैं; वे मुख्यतः लम्बे समय के
साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी शासन और पिछड़ी, कालबाह्य सामाजिक संरचना के अवशेषों से उपजी
हुई हैं. इस बात का और अधिक विस्तार से वर्णन करना ज़रूरी नहीं. सोलहवीं और
उन्नीसवीं सदी के बीच एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के देश यूरोपीय
साम्राज्यवाद से ग्रस्त हुए. उनमें से कुछ अच्छे-खासे विकसित सामंती समाज थे
जिनमें विकसित सामंती संस्कृति की पुरातन परम्पराएँ प्रचलित थीं. औरों को अब भी
प्रारम्भिक ग्रामीण कबीलाईवाद से परे जाकर विकास करना था. राजनीतिक पराधीनता के
दौरान उन देशों का सामाजिक और सांस्कृतिक विकास जम सा गया और यह राजनीतिक
स्वतंत्रता प्राप्त होने तक जमा ही रहा. तकनीकी और बौद्धिक श्रेष्ठता के बावजूद इन
प्राचीन सामंतवादी समाजों की संस्कृति एक छोटे से सुविधासंपन्न वर्ग तक ही सीमित
थी और उसका अंतर्मिश्रण जन साधारण की समानान्तर सीधी सहज लोक संस्कृति से कदाचित
ही होता. अपनी बालसुलभ सुन्दरता के बावजूद आदिम कबीलाई संस्कृति में बौद्धिक
तत्त्व कम ही था. एक ही वतन में पास पास रहने वाले कबीलाई और सामंतवादी समाज दोनों
ही अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ लगातार कबीलाई, नस्ली और धार्मिक या दीगर झगड़ों में लगे
रहते. अलग अलग कबीलाई या राष्ट्रीय समूहों के बीच का लम्बवत विभाजन (vertical
division), और एक ही कबीलाई
या राष्ट्रीय समूह के अंतर्गत विविध वर्गों के बीच का क्षैतिज विभाजन (horizontal
division), इस दोहरे विखंडन
को उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी प्रभुत्व से और बल मिला. यही वह सामाजिक और
सांस्कृतिक मूलभूत ज़मीनी संरचना है जो नवस्वाधीन देशों को अपने भूतपूर्व मालिकों
से विरासत में मिली है.
एक बुनियादी
सांस्कृतिक समस्या जो इनमें से बहुत से देशों के आगे मुँह बाए खड़ी है,
वह है
सांस्कृतिक एकीकरण की समस्या. लम्बवत एकीकरण जिसका अर्थ है विविध राष्ट्रीय
सांस्कृतिक प्रतिरूपों को साझा वैचारिक और राष्ट्रीय आधार प्रदान करना और क्षैतिज
एकीकरण जिसका अर्थ है अपने समूचे जन समूह को एक से सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर तक
ऊपर उठाना और शिक्षित करना. इसका मतलब यह कि उपनिवेशवाद से आज़ादी तक के गुणात्मक
राजनीतिक परिवर्तन के पीछे-पीछे वैसा ही गुणात्मक परिवर्तन उस सामाजिक संरचना में
होना चाहिए जिसे उपनिवेशवाद अपने पीछे छोड़ गया है.
एशियाई,
अफ्रीकी और
लातिन अमरीकी देशों पर जमाया गया साम्राज्यवादी प्रभुत्व विशुद्ध राजनीतिक आधिपत्य
की निष्क्रिय प्रक्रिया मात्र नहीं था और वह ऐसा हो भी नहीं सकता था. इसे सामाजिक
और सांस्कृतिक वंचन (deprivation) की क्रियाशील प्रक्रिया ही होना था और ऐसा था
भी. पुराने सामंती या प्राक-सामंती समाजों में कलाओं,
कौशल्य,प्रथाओं, रीतियों,प्रतिष्ठा, मानवीय मूल्यों और बौद्धिक प्रबोधन के माध्यम
से जो कुछ भी अच्छा, प्रगतिशील और अग्रगामी था उसे साम्राज्यवादी
प्रभुत्व ने कमज़ोर करने और नष्ट करने की कोशिश की. और अज्ञान,
अंधविश्वास,जीहुजूरी और वर्ग शोषण अर्थात जो कुछ भी
उनमें बुरा, प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी था उसे बचाए और बनाए रखने की कोशिश की. इसलिए
साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने नवस्वाधीन देशों को वह सामाजिक संरचना नहीं लौटाई जो
उसे शुरुआत में मिली थी बल्कि उस संरचना के विकृत और खस्सी कर दिए गए अवशेष उन्हें
प्राप्त हुए. और साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने भाषा, प्रथा, रीतियों, कला की विधाओं और वैचारिक मूल्यों के माध्यम
से इन अवशेषों पर अपने पूंजीवादी सांस्कृतिक प्रतिरूपों की घटिया,बनावटी, सेकण्ड-हैण्ड नकलें अध्यारोपित कीं.
अविकसित देशों
के सामने इस वजह से बहुत सी सांस्कृतिक समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं. पहली समस्या है
अपनी विध्वस्त राष्ट्रीय संस्कृतियों के मलबे से उन तत्वों को बचा कर निकालने की
जो उनकी राष्ट्रीय पहचान का मूलाधार है, जिनका अधिक विकसित सामाजिक संरचनाओं की
आवश्यकताओं के अनुसार समायोजन और अनुकूलन किया जा सके,
और जो प्रगतिशील
सामाजिक मूल्यों और प्रवृत्तियों को मज़बूत बनाने और उन्हें बढ़ावा देने में मदद
करे. दूसरी समस्या है उन तत्वों को नकारने और तजने की जो पिछड़ी और पुरातन सामाजिक
संरचना का मूलाधार हैं, जो या तो सामाजिक संबंधों की और विकसित
व्यवस्था से असंगत हैं या उसके विरुद्ध हैं, और जो अधिक विवेक बुद्धिपूर्ण और मानवीय मूल्यों
और प्रवृत्तियों की प्रगति में बाधा बनते हैं. तीसरी समस्या है,
आयातित विदेशी
और पश्चिमी संस्कृतियों से उन तत्वों को स्वीकार और आत्मसात करने की जो राष्ट्रीय
संस्कृति को उच्चतर तकनीकी, सौन्दर्यशास्त्रीय और वैज्ञानिक मानकों तक ले
जाने में सहायक हों, और चौथी समस्या है उन तत्वों का परित्याग
करने की जो अधःपतन, अवनति और सामाजिक प्रतिक्रिया को सोद्देश्य
बढ़ावा देने का काम करते हैं.
तो ये सभी
समस्याएँ नवीन सांस्कृतिक अनुकूलन, सम्मिलन और मुक्ति की हैं. और इन समस्याओं का
समाधान आमूल सामाजिक (अर्थात राजनीतिक, आर्थिक और वैचारिक) पुनर्विन्यास के बिना
केवल सांस्कृतिक माध्यम से नहीं हो सकता.
इन सभी बातों के
अलावा,
अविकसित देशों
में राजनीतिक स्वतंत्रता के आने से कुछ नई समस्याएँ भी आई हैं. पहली समस्या है
उग्र-राष्ट्रवादी पुनरुत्थानवाद, और दूसरी है नव-साम्राज्यवादी सांस्कृतिक पैठ
की समस्या.
इन देशों के
प्रतिक्रियावादी सामाजिक हिस्से; पूंजीवादी, सामंती,प्राक-सामंती और उनके अभिज्ञ और अनभिज्ञ
मित्रगण ज़ोर देते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा के अच्छे और मूल्यवान
तत्वों का ही पुनःप्रवर्तन और पुनरुज्जीवन नहीं किया जाना चाहिए बल्कि बुरे और
बेकार मूल्यों का भी पुनःप्रवर्तन और स्थायीकरण किया जाना चाहिए. आधुनिक पाश्चात्य
संस्कृति के बुरे और बेकार तत्वों का ही नहीं बल्कि उपयोगी और प्रगतिशील तत्वों का
भी अस्वीकार और परित्याग किया जाना चाहिए. इस प्रवृत्ति के कारण एशियाई और अफ्रीकी
देशों में कई आन्दोलन उभरे हैं. इन सारे आन्दोलनों के उद्देश्य मुख्यतः राजनीतिक
हैं,
अर्थात
बुद्धिसम्पन्न सामाजिक जागरूकता के उभार में बाधा डालना और इस तरह शोषक वर्गों के
हितों और विशेषाधिकारों की पुष्टि करना.
उसी समय नव-उपनिवेशवादी शक्तियाँ,
मुख्यतः सं.रा.अमरीका,
अपराध,हिंसा,सिनिसिज्म,विकार और लम्पटपन का महिमामंडन और गुणगान
करने वाली दूषित फिल्मों, पुस्तकों, पत्रिकाओं, संगीत, नृत्यों, फैशनों के रूप में सांस्कृतिक कचरे,या ठीक-ठीक कहें तो असांस्कृतिक कचरे के
आप्लावन से प्रत्येक अविकसित देश के समक्ष खड़े सांस्कृतिक शून्य को भरने की कोशिश
कर रही हैं. ये सभी निर्यात अनिवार्यतः अमरीकी सहायता के माध्यम से होने वाले
वित्तीय और माल के निर्यात के साथ साथ आते हैं और उनका उद्धेश्य भी मुख्यतः
राजनीतिक है अर्थात अविकसित देशों में राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ने
से रोकना और इस तरह उनके राजनीतिक और बौद्धिक परावलंबन का स्थायीकरण करना. इसलिए
इन दोनों समस्याओं का समाधान भी मुख्यतः राजनीतिक है अर्थात देशज और विदेशी
प्रतिक्रियावादी प्रभावों की जगह पर प्रगतिशील प्रभावों को स्थानापन्न करना. और इस
काम में समाज के अधिक प्रबुद्ध और जागरूक हलकों जैसे लेखकों,
कलाकारों और
बुद्धिजीवियों की प्रमुख भूमिका होगी. संक्षेप में, कुंठित विकास, आर्थिक विषमता, आंतरिक विसंगतियाँ,
नकलचीपन आदि
अविकसित देशों की प्रमुख सांस्कृतिक समस्याएँ मुख्यतः सामाजिक समस्याएँ हैं;
वे एक पिछड़ी
हुई सामाजिक संरचना के संगठन, मूल्यों और प्रथाओं से जुड़ी हुई समस्याएँ
हैं. इन समस्याओं का प्रभावी समाधान तभी होगा जब राष्ट्रीय मुक्ति के लिए हुई
राजनीतिक क्रान्ति के पश्चात राष्ट्रीय स्वाधीनता को पूर्ण करने के लिए सामाजिक
क्रान्ति भी होगी.
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