एक नवंबर को मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की राज्य सरकारों ने अपना-अपना स्थापना दिवस सिनेमाई सितारों के साथ वैभव का प्रदर्शन करते हुए मनाया। नए राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ का अस्तित्व मध्यप्रदेश का खंडित भाग है। बृहद भारत का लोक उत्सवधर्मी रहा है। इसलिए भारत के अंचल-अंचल में लोक संस्कृति, लोक नृत्य, लोक गीत और लोक साहित्य अनन्य आयामों में बिखरा पड़ा है। शायद इसी परिप्रेक्ष्य में कहा भी गया है, ‘चार कोस पे पानी बदले, आठ कोस पे वाणी।’ यही बदलती हुई वाणियां, मसलन वे बहु बोलियां हैं, जो सांस्कृतिक विविधता के विविध लोकरूपों में आयाम रचती हैं और राष्ट्रीय अखंडता का प्रतीक श्लोगन ‘विविधता में एकता’ राष्ट्रीय गरिमा के साथ अभिव्यक्त किया जाता है। हमें अपनी ज्ञान परंपरा और इतिहास बोध भी इसी लोक संस्कृति से होता है। इसी बोध में नैतिक, धार्मिक और सामाजिक आदर्शों के उन मूल्यों का सार अंतर्निहित है, जो हमें राष्ट्र, समाज और परिवार के प्रति दायित्व निर्वहन की जिम्मेवारियों से बांधे रखता है। किंतु दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनेताओं और नौकरशाहों की सांस्कृतिक चेतना विलुप्त हो रही है। उन्होंने इन दोनों राज्यों में जो सांस्कृतिक बहुलता है, उसे सर्वथा नजरअंदाज कर सांस्कृतिक सरोकारों का मुंबइया फिल्मीकरण कर दिया। वैचारिक विपन्नता का यह चरम, इसलिए और भी ज्यादा हास्यास्पद व लज्जाजनक है, क्योंकि इन दोनों ही राज्यों में उस भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं, जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ध्वजा फहराने का दंभ भरती हैं। अलबत्ता फिल्मी प्रस्तुतियों के ये उपक्रम लोक की जो स्थानीय सांस्कृतिक पहचान है, उसे ही मिटाने का काम कर रहे हैं।
भूमंडलीय आर्थिक उदारवाद की नीतियों के रचनाकार एडम स्मिथ की अवधारणा स्थानीयता की सांस्कृतिक बहुलता को विस्थापित कर एकरूपता का जंजाल यदि दुनिया में कहीं सबसे ज्यादा रच रही है तो वह भारत की सरजमीं है। संस्कृति का सिनेमाई बाजरीकरण इसके मूल पर क्रूर हमला है। इस बाजारवाद में जहां वर्तमान लोक कलाकारों को उनके कला व्यापार से विस्थापन का षड्यंत्र परिलक्षित है, वहीं नई पीढ़ी को परंपरा से दूर कर देने की साजिश भी है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में संगीतकार ए.आर. रहमान और छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में बिंदास अभिनेत्री करीना कपूर के साथ गायक सोनू निगम के कार्यक्रम आयोजित किए गए। इन कलाकारों को पौने दो-दो करोड़ रुपए का पारिश्रमिक दिया गया। ठहरने, खाने-पीने और आवागमन की पांच तारा व्यवस्थाएं पृथक से थीं। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि इन राज्योत्सवों की भव्यता उजागर करने के लिए क्या फिल्मी हस्तियों को ही आमंत्रित करना जरूरी था? यदि आयोजक गणों की सोच इतनी संकीर्ण हो गई है तो संस्कृतिकर्मियों को दीवार से सिर पीट लेने के अलावा कोई चारा शेष नहीं रह जाता। क्योंकि संस्कृति के बहाने ये मायावी प्रस्तुतियां हमारे सामने संस्कृति को बाजार के हवाले कर देने का संकट उत्पन्न करने वाली हैं।
यह सांस्कृतिक संरक्षण का बाजारी मुखौटा है। इसमें प्रच्छन्न शोषण तो है ही, भ्रष्ट आचरण भी परिलक्षित होता है। यह कदाचार चतुराई भरा है। इसमें प्रत्यक्ष न संस्कृतिकर्मियों की बेदखली दिखाई देती है, न शोषण, न अवमानना और न ही लेन-देन का कारोबारी कुचक्र। सिनेमाई महिमामंडन होता ही इतना मायावी है कि देशज लोक कितना ही उत्पीडि़त हो, वह उसकी आभा में दिखाई नहीं देता। देशज लोक की यह उपेक्षा आगे भी जारी रहती है तो तय है, लोककर्मी और बदतर हाल में पहुंचने वाले हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ऐसे राज्य हैं, जहां समद्ध लोक संस्कृति बिखरी पड़ी है। आर्थिक वंचना की पीड़ा झेलते हुए भी ये लोक कलाकार मंच मिलने पर स्वर्णिम आभा की छटा रचने को तत्पर दिखाई देते हैं। इन्हीं लोक प्रस्तुतियों को हम स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस के अवसरों पर रचकर राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय गौरव का अनुभव करते हैं। गौरवशाली इन धरोहरों का प्रदर्शन भोपाल और रायपुर में होता तो लोक कलाकारों को बढ़ा मंच मिलता। उन्हें दिया जाने वाला पारिश्रमिक उनकी बदहाल होती आर्थिक स्थिति को संवारता। लोक प्रस्तुतियों के माध्यम से दोनों प्रदेशों की एक बड़ी आबादी भारतीय ज्ञान परंपरा, मिथक और इतिहास बोध से परिचित होती। लेकिन यहां चिंताजनक है कि हमारे सत्ता संचालक देशज संस्कृति के नाम पर सिनेमाई छद्म रचने लग गए हंै। यह स्थिति महानगरीय सार्वदेशिक संस्कृति का विस्तार है। जिसमें लोग अपनी जड़ों से कटते चले जाते हैं और संस्कृति को सामाजिक सरोकारों से काटकर, मनोरंजन के फूहड़ प्रदर्शन में बदल दिया जाता है। ठीक उसी तरह के भौंडे और भद्दे प्रदर्शन जो हमें टीवी के पर्दे पर हास्य और बिग बॉस जैसे कार्यक्रमों में दिखाई देते हैं।
हमारी लोक संस्कृतियां ही हैं, जो अवाम को भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम रूपों और यथार्थ से परिचित कराती हैं। वेद्, उपनिशद, रामायण, महाभारत और पुराण कथाओं के लघु रूप लोक प्रस्तुतियों में अंतर्निहित हैं। वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन, बौद्ध, मुसलमान, ईसाई, सिख, परनामी, कबीरपंथी आदि अनेक धर्म व विचार भिन्नता में आस्था रखने वाले लोगों में पारस्परिक सौहार्द का मंत्र लोक श्रुतियां ही रचती हैं। जो आध्यात्मिकता भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है, उसके जनमानस में आत्मसात हो जाने की प्रकृति इन्हीं देशज लोक सांस्कृतिक मूल्यों से पनपती है। आंतरिक एकता, जो शाश्वत और सनातन है, बाहरी वैविध्य जो अल्पजीवी और महत्त्वहीन है, जीवन दृष्टि के इस समावेशी मूल्य के प्रचार का कारक यही लोक धरोहरें है।
सिनेमाई नायिकाओं के नृत्य से कहीं ज्यादा प्रभावकारी व उपदेशी संप्रेषणीयता लोक नृत्यों और लोक नर्तकियों की भाव भंगिमाओं और बोलों से प्रस्फुटित होती है। भगवान शिव के तांडव नृत्य से नृत्य, लोक में आया। यही पहले लोक नृत्य के रूप में प्रचलित व प्रतिष्ठित हुआ और बाद में शास्त्रीय नृत्य के मूल का आधार बना। स्थापना समारोह की उत्सवधर्मिता के लिए लोक और शास्त्रीय नर्तकों को भी बुलाया जा सकता था। जीवन और प्रकृति के घनिष्ठ रूपों में तादात्म्य स्थापित करने के कारण, लोक नृत्य अलग-अलग वर्गों के व्यवसाय से प्रभावित होकर अनेक रूप धारण करते हैं। बदलते मौसम में कृषक समाज के सरोकार भी लोक नृत्य और गीतों से जुड़े होते हैं, जो कर्तव्य के प्रति चेतना के प्रतीक होते है। प्रतीकों का वैविध्य भी लोक संस्कृतियां उकेरती हैं। हमारे लोक में ऐसे अनेक प्रतीक हैं, जो अपनी विलक्षणता के कारण सार्वभौमिक हैं। उदाहरण स्वरूप सिंह वीरता का, श्वेत रंग पवित्रता और शांति का, सियार कायरता का और लोमड़ी चतुराई का प्रतीक पूरी दुनिया में माने जाते हैं। प्रत्येक देश के लोक साहित्य में ये इन्हीं अर्थों के पर्याय हैं।
लोक में जो धार्मिक और राष्ट्रीय आदर्श है अथवा जो लोकोपवाद हैं, भारत की पृष्ठभूमि में वे भी लोक संस्कृति का हिस्सा हैं। हमारे यहां सीता और सावित्री आदर्श पतिव्रत की प्रतीक हैं। सिंदूर और चूडिय़ां सौभाग्य की प्रतीक हैं। राखी भाई-बहिन के रिश्ते की प्रतीक है। जयचंद और मीरजाफर देशद्रोह के प्रतीक हैं, तो कुल कलंकी विभीषण अपने ही वंश विनाश का प्रतीक है। सामाजिक सांस्कृतिक विद्रूपताओं का बोध कराने वाले ये प्रतीक धर्म ग्रंथों के अध्ययन अथवा इतिहास की जानकारी हासिल करने से लोक में व्याप्त नहीं हुए हैं बल्कि लोक संस्कृति और साहित्य की आसान लोक श्रुतियों और प्रस्तुतियों के माध्यम से ही ये लोक की जुबान पर चढ़े। किंतु यह दर्दनाक है कि भूमंडलीय आर्थिक उदारवाद का सांस्कृतिक सत्य स्थानीय लोक सांस्कृतिक विराटताओं के बीच एकरूपता का विद्रूप रचने लग गया है। हजारों साल से अर्जित जो ज्ञान परंपरा हमारे लोक में वाचिक परंपरा के अद्वितीय संग्रह के नाना रूपों में सुरक्षित है, उसे उधार की छद्म संस्कृति द्वारा विलोपित हो जाने के संकट में डाला जा रहा है। इस संकट को भी वे राज्य सरकारें आमंत्रण दे रही हैं, जो संस्कृति के संरक्षण का दावा करने से अघाती नहीं हैं। क्या यह छद्म धर्मनिरपेक्षता की तरह सांस्कृतिक छद्म नहीं है?
http://www.samayantar.com बाट साभार
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