Tuesday, June 23, 2015

भारतीय साहित्य में जातीय सांस्कृतिक चेतना - डॉ मनोज पाण्डेय


भा रतीय साहित्य और उसकी जातीय अस्मिता की परख के लिए भारतीयता की अवधारणा पर विचार करना जरूरी है।
 कारण यह है कि, भारतीयता की अवधारणा  पर विचार करना जरूरी है। कारण यह है कि, भारतीयता के मूल स्वर को अभिव्यक्त करने वाला साहित्य ही भारतीय साहित्य हो सकता है चाहे उसकी रचना देश की चौहद्दी के भीतर हुई हो चाहे बाहर, और चाहे वह किसी भी देश-विदेशी भाषा में लिपिबद्ध हुई हो। कहने का अभिप्राय यह है कि भारतीय साहित्य वही कहा जा सकता है जिसमें भारतीयता के तत्त्व विद्यमान हो, जिसमें भारतीय जनमानस के स्वर मुखरित हुए हों, भारतीय अस्मिता की जिसमें पहचान निहित हो। दिक् और काल, बोली और भाषा भारतीयता के मापदण्ड नहीं हो सकते, न ही भारतीय साहित्य के निर्धारक हो सकते हैं। किसी भी राष्ट्र की अपनी एक जातीय संस्कृति होती है, सांस्कृतिक चेतना होती है जिसमें उसकी अस्मिता के सूत्र होते हैं, उन्हें दरकिनार कर उसके राष्ट्रीय साहित्य की अवधारणा लिपिबद्ध नहीं हने सकती-भारतीय साहित्य की भी नहीं हो सकती।
जहां तक भारतीयता की बात है, इसका अर्थ किसी संकीर्णता के बंधन में बंधा हुआ नहीं है, न ही किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय या वर्ग विशेष की सीमा में संकुचित है। भारतीयता जीवित सत्ता का नाम है, मृत नहीं। डॉ  नगेन्द्र के अनुसार- 'भारतीय भौगोलिक और राष्ट्रीय, देशिक और कालिक सीमाओं से मुक्त एक स्थिर धारणा है, जिसका निर्माण भारतीय जीवन-दर्शन में व्याप्त स्थायी तत्त्वों के द्वारा हुआ है।' डॉ  सुनीतिकुमार चटर्जी ने इसे ही भारत धर्म कहा है। धर्म, दर्शन और अध्यात्म भारतीयता के विशेष पहलू हैं। निश्चय ही भारतीयता की एक वृहद अवधारणा है, इसमें विविधता में एकता का भाव विद्यमान है। हमारे राष्ट्र की राष्ट्रीयता की पहचान ही है भारतीयता।
भारतीयता के स्वरूप का निर्धारण करते हुए डॉ  नगेन्द्र ने अपने निबंध 'आधुनिक भारतीय साहित्य में भारतीयता' में निम्नलिखित तत्त्वों का उल्लेख किया है-1 आस्तिक बुद्धि-अर्थात भौतिक जीवन से ओत-प्रोत किसी न किसी प्रकार की चैतन्य सत्ता में विश्वास , 2 इस चैतन्य सत्ता के संबंध से जीवन के प्रति आस्था-यानी त्याग से परिपोषित भोग की कामना 3 अनेकता में एकता की कल्पना ओर तज्जन्य समन्वय भावना, 4 धार्मिक मानववाद अर्थात अतीन्द्रिय आनंद और कल्याण की भावना से प्रेरित मानव  गरिमा की स्वीकृति, 5 साहिष्णुता और समभाव अथवा सत्य के रूढिमुक्त विकासशील रूप की कल्पना आदि।
कहना न होगा यहनं नगेन्द्रजी जिस भारतीय जीवन-दर्शन की बात कर रहे है उसका आधार हमारी-सांस्कृति चेतना है। यही हमारी भारतीयता के भाव का प्रतीक भी है।
भारतीय साहित्य के संबंध में विचार करते हुए डॉ  इन्द्रनाथ चौधरी ने भारतीयता की पहचान के तीन आद्यप्रारूपी बिम्बों का उल्लेख किया है। जिसमें पहली है वेदान्तिक अवधारणा, जिसके अनुसार पारमार्थिक सत्ता एकमात्र सत्ता है  इस सत्ता को समझने के लिए ही भारतीय आचार्यों, संतों, विद्वानों ने ब्रह्म और प्रकृति, आत्मा और परमात्मा, स्रष्टा और सृष्टि के भदोपभेद किये हैं। दूसरा आद्यप्रारूप है, आदर्शवाद और तीसरा है मानवतावाद। यह भारतीय आदर्शवाद ही है कि यहां पत्ते के झडने तक को अंकुर के फूटने के संदर्भ में देखा जाता है, मनुष्य को स्वयं ईश्वर का पर्याय माना जाता है। उपनिषद् का घोष वाक्य ही है-'अहं ब्रह्मास्मि।' कहना न होगा कि भारतीयता के ये आद्य प्रारूप भारतीय जीवन-दर्शन के प्ररेक ओर सहचर है और भारतीय साहित्य के मानक हैं। समूचे भारतीय वाड्मय साहित्य में इन्हें पाया जा सकता है।
डॉ  नगेन्द्र इसे ही 'भावप्रतिमा' मानते हुए कहते हैं, 'भारतीय परिवेश में और यथासंभव भारतीय उपकरणों के माध्यम से भारत की इसी भाव प्रतिमा को अंकति करने वालाा साहित्य शुद्ध अर्थ में भारतीय साहित्य है। आज भी भारतीय साहित्य का उत्तमांश इसी कल्पना से अनुप्राणित है।'
जातीय-सांस्कृतिक चेतना प्रत्येक राष्ट्र की अपनी विरासत होती है, जो वसीयत के रूप में भाषा, साहित्य, पर्व-त्यौहार, व्यवहार आदि माध्यमों से अनवरत् प्रवाहमान बनी रहती है। उसमें कुछ नया जुडता रहता है, कुछ पुराना खारिज होता रहता है। यह भी उल्लेख है कि भारत वर्ष  की जातीय-सांस्कृतिक चेतना की अपनी एक पहचान है, उसका अपना मुकम्मल इतिहास और वर्तमान है। साहित्येतिहास का कोई भी कालखंड ऐसा नहनीं है, जिसमें समूचे भारतीय मानव का स्वर एक-सा न सुनाई देता हो, टोन में कमी-बेशी हो सकती है, अभिव्यक्ति के माध्यम भिन्न हो सकते हैं, अभिव्यंजना के धरातल भिन्न हने सकते हैं, परन्तु अभिव्यंजित वस्तु अभिन्न है, उसमें एक सावयविक एकता है। आदिकाल या प्रारंभिक काल और उससे भी पहले जायें तो वैदिक काल और उपनिषद्काल से लेकर आज तक के समूचे भारतीय वाड्मय का इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारतीयता का भाव इस राष्ट्र की किसी एक भाषा, एक बोली, एक क्षेत्र, एक जाति, एक धर्म की जागीर नहीं रहा है, वह समस्त भारतीय मानस की भावना का प्रतिबिम्ब रहा है, समग्र भारतीय समाज का दर्पण रहा है। हमारे वैदिक साहित्य उपनिषद, पुराण आदि जिस भारतीय की परिकल्पना में रचे गये हैं वह इस राष्ट्र की एकात्मकता की नींव है। संस्कृत काल में रचित साहित्य की भावभूमि एक ही है, चाहे उसका सृजन काशी उत्तर भारत में हुआ हो या कांजी दक्षिण भारत में या कश्मीर में। कावेरी नदी से गंगा तट तक बीच में अन्यान्य जलधाराओं को छूते-मिलाते हुए संस्कृत में जो रचना हुई है उसमें वैविध्य के बावजूद समन्वय की विराट चेतना है।
मध्ययुगीन भक्ति साहित्य को भी हम मिसाल के तौर पर देख सकते हैं। भक्ति साहित्य एक सामाजिक आंदोलन की उपज है। यह किसी एक भाषा-भाषी की विरासत नहीं है। इसमें समूचे भारतवर्ष की भावना व्यक्त हुई है। बहुभाषी होते हुए भी इसकी भावभूमि एक समान है। डॉ इन्द्रनाथ चौधुरी के शब्दों में 'भक्ति साहित्य में अलग-अलग भाषाओं का प्रयोग है। सांस्कृतिक विशिष्टताओं की अभिव्यक्ति है तथा समुदाय के आश्रय से ऐतिहासिक क्रियात्मकता में प्रादेशिक अस्मिता का प्रसार है। विभिन्न भाषाओं में रचित इस साहित्य में दिखाई पडने वाली विविधिता के बावजूद एक आम विश्वास , आस्था , मिथक तथा अनुश्रुतियां इनमें विषयवस्तु की एकता का पता देती है।'
इसी प्रकार आधुनिक काल का नवजागरण सर्व घटना है। नवजागरण के प्रभावस्वरूप राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पुनरुस्थानवाद का जो उदय हुआ , उसे समूचे भारतीय साहित्य में देखा जा सकता है। मौजूदा दौर को ही देखें तो उदारीकरण, भूमण्डलीकरण, व्यापारीकरण का दबाव-प्रभाव और इनके कारन्ण लोग पहचान को, स्थानीय रंगत को कायम रखने की चिंता और चेतना, विमर्श के नये धरातल तथा स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श की अनुगूंज समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य में देखी-समझी जा सकती है और इनकी सर्व भारतीय पहचान को महसूस किया जा सकता है ।
यह भी उल्लेख करना होगा कि भारतीय जातीय अस्मिता के तन्तुओं की समानता के कारण ही भारत के किसी भी एक भू-भाग में घटने वाली मसलन किसी विचारधारा या साहित्यिक प्रवृति का प्रादुर्भाव, मात्र वहनीं तक सिमटकर नहीं रह जाती। वह जल्दी ही सर्वभारतीय रूप ग्रहण कर लेती है। विगत कऊछ दर्शकों में उभरने दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श के स्वर को इस संदर्भ में देखा जा सकता है।
कुल मिलाकर कहना यह है कि भारतीय साहित्य की अवधारणा की पहचान-परख के लिए भारतीय जातीय सांस्कृति चेतना की पहचान आवश्यक है। यही वह आधार है जिसके सहारे भारतीय साहित्य की एकसूत्रता की तलाश की जा सकती है। आचार्य कृष्ण कृपलानी का मत निष्कर्ष रूप में यहों ध्यातत्व है-'भारतीय सभ्यता की तरह, भारतीय साहित्य का भी विकास, जो एक प्रकार से उसकी सटीक अभिव्यक्ति है, सामाजिक रूप में हुआ है। इसमें अनेक युगों ,प्रजातियों और धर्मों का प्रभाव परिलक्षित होता है और सांस्कृतिक चेतना तथा बौद्धिक विकास के विभिन्न स्तर मिलते हैं।'
http://www.deshbandhu.co.in बाट साभार 

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