Wednesday, January 7, 2015

नबारून दा: ज्वालामुखी के दहाने खलबला रही चाय का आमंत्रण

नबारून दा: ज्वालामुखी के दहाने खलबला रही चाय का आमंत्रण

प्रणय कृष्ण द्वारा शायद यह पहला प्रयास है हिंदी में, जहाँ नबारून भट्टाचार्य की चर्चा उनके समूचे रचनात्मक व्यक्तित्व के प्रसंग में की गयी है. हिंदी में क्रांतिकारी राजनितिक सक्रियता के स्तर पर जो पीढ़ी सक्रिय थी, उनके यहाँ नबारुण की रचनात्मक छबि ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ तक ही सीमित है. यह एक स्तर पर सच भी है कि नबारुण दा की शुरूआती पहचान इसी काव्य-पुस्तिका के सन्दर्भ में स्थापित हुयी थी. लेकिन इस पहचान को स्थिर करने का काम नबारुण के गद्य-लेखन ने किया है. नबारुण दा का यही गद्यकार व्यक्तित्व बंगाली युवकों-युवतियों के बीच लोकप्रियता के चरम पर स्थित है. नबारुण की चर्चा उनके उपन्यास ‘हार्बर्ट’ (१९९३) और ‘काँगाल मालसाट’ (२००३) के बिना अधूरा ही नहीं बल्कि एकांश भी नहीं है. साथ ही साथ पुरंदर भाट नामक कवि नायक (जो की काँगाल मालसाट का एक चरित्र है) की काव्य-पंक्तियों के बिना नबारुण की जीवंतता और तिक्तता को समझना और भी मुश्किल काम है. @तिरछीspelling 
मेरे द्वारा निर्मित शब्दों का घर/ टूट जायेगा रूदन से/ मेरे मरने के बाद/ वैसे अचंभित होने जैसा कुछ भी नहीं है इसमें/ पुछ जाऊंगा घर के आईने से/ दीवारों पर नहीं होंगे मेरे चित्र/ वैसे दीवार अच्छा नहीं लगा कभी मुझे/ अब आकाश ही मेरा दीवार होगा/ जिस पर चिमनियों के धुँए से/ पंछी मेरा नाम लिखेंगे/ आकाश ही मेरे लिखने का टेबिल होगा अब/ ठंडा पेपरवेट होगा चाँद/ काले मखमली कुशन में तारे टिमटिमायेंगे/ मुझे याद कर के/ दुखी होने की जरूरत नहीं है तुम्हें/ इन बातों को लिखते हुए मेरे हाँथ नहीं काँप रहे/ पर जब पहली बार थामा था तुम्हारे हाथों को/ कुछ आवेग और कुछ झिझक में/ मेरे हाँथ जरूर काँपे थे/ मेरी सुन्दर पत्नी मेरी प्रेयषी/ मेरी यादें तुम्हें घेरे रहेंगी/ जरूरी नहीं है जकड़ी रहो तुम भी उनमें/ गढ़ना अपना जीवन खुद/ मेरी यादें होंगी तुम्हारा साथी/ तुम करो यदि प्रेम किसी से/ दे देना इन सारी यादों को उसे/ कॉमरेड बना लेना उसे अपना/ हाँ मैं जरूर सबकुछ तुम पर छोड़े जा रहा हूँ/ मेरा विश्वास है कि गलतियाँ नहीं करोगी तुम/ तुम मेरे बेटे को/ अक्षरज्ञान के समय/मनुष्य धूप और तारों से प्रेम करना सिखाना/ वह मुश्किल से मुश्किल गणित सुलझा पायेगा तब/ क्रांति का एलजेब्रा भी/ वह मुझसे बेहतर समझेगा/ चलना सिखायेगा मुझे जुलूसों में/ पथरीले जमीन पर और घास पर/ हाँ! मेरी कमियों के बारे में भी बताना उसे/ पर ध्यान रहे वह मुझसे नफरत न करे/ कोई बड़ी बात नहीं है मेरा मरना/जानता था/ बहुत दिनों तक जिंदा रहने वाला नहीं हूँ मैं/ पर समस्त तरह के मृत्यु का अतिक्रमण कर/ हर तरह के अन्धकार को अस्वीकार कर/ मेरा विश्वास कभी नहीं डिगा/ क्रांति हमेशा दीर्घायु हुई है/क्रांति हमेशा चिरजीवी हुई है
(नबारून दा की ‘अंतिम इच्छा’ (শেষ ইচ্ছে) शीर्षक कविता, बांग्ला से अनुवाद- राजीव राही)
Photo Courtesy Q
Photo Courtesy Q
By प्रणय कृष्ण
क्या ऐसी ‘अंतिम इच्छा’ आपने किसी की सुनी है? कैसा रहा होगा वह जीवन जिसकी ‘अंतिम इच्छा’ ऐसी हो? ३१ जुलाई, २०१४ को जब हम सब अपने अपने शहरों में प्रेमचंद जयन्ती मना रहे थे, नबारून दा दुनिया को चुपचाप लगभग साढ़े चार बजे अलविदा कह गए. पिछली २३ फरवरी को पटपड़गंज, दिल्ली के मैक्स हास्पिटल में अंतिम बार भेंट हुई थी. लोकसभा चुनाव, वाम एकता और कुछ हंसी-दिल्लगी की बातों के बीच बमुश्किल उनके स्वास्थ्य पर बात टिक पा रही थी. कह रहे थे कि रेडियोथेरेपी के बाद यदि ट्यूमर छोटा हो जाता है, तो ऑपरेशन संभावित है. यह भी कि शायद कुछ कहानियों और एक उपन्यास को वे पूरा कर पाएँगे.
धूमिल के गाँव खेवली( बनारस) में सन २००8 में जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में उनसे आग्रह किया गया कि वे ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ ( मंगलेश डबराल कृत हिन्दी अनुवाद) ज़रूर पढ़ें. दो पंक्तियाँहिन्दी में पढ़ने के बाद उन्होंने बांगला में शेष कविता पढ़नी शुरू की. लगा मानों मेघ गड़गड़ा रहे हैं. उस काव्यपाठ कीयाद अभी भी सिहरन पैदा करती है.
एक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी के रूप में नबारून दा के चरित्र की दृढ़ता उनके एक्टिविज्म और रचनाकर्म में ही नहीं, देश-दुनिया में दमन-शोषण और मानवद्रोह की तमाम वारदातों के खिलाफ व्यक्तिगत स्तर पर भी निर्भीकता के साथ उठ खड़े होने में दिखाई देती है. उन्होंने सच कहने के लिए किसी के अनुमोदन का इंतज़ार कभी नहीं किया. पश्चिम बंगाल विधानसभा के पिछले चुनावों से पहले का वाकया याद आता है. सिंगूर-नंदीग्राम के बाद इन चुनावों में वाममोर्चा की हार तय दीख रही थी. दशकों से वाम प्रतिष्ठान का संरक्षण पाए बौद्धिक भी ‘माय, माटी, मानुष’ की ममतामयी पुकार लगा रहे थे. तमाम भूतपूर्व और ‘अ’भूतपूर्व क्रांतिकारी बौद्धिक और खुद को माओवादी बतानेवाले भी ममतामय हुए जा रहे थे. नबारून अकेले ही यह कहने को उठ खड़े हुए कि वाममोर्चा का विकल्प ममता नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी वाम विकल्प ही हो सकता है. यदि वह बंगाल में अभी उपलब्ध नहीं है तो क्या मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को उसे बनाने के काम में नहीं लगना चाहिए? उपलब्ध बूर्जुआ विकल्पों में से किसी एक के पीछे खड़ा हो जाना एक बुद्धिजीवी द्वारा अपने दायित्व का विसर्जन है. यह वही व्यक्ति कह सकता था जिसने ‘नक्सलबाड़ी विद्रोह’ को खड़ा करने और उसके सन्देश को जनता में पहुँचाने में बुद्धिजीवियों की भूमिका को देखा था और खुद इस भूमिका में खड़ा हुआ था.
 नबारून न केवल वाममोर्चा के लिए, बल्कि ममता-राज के लिए भी भारी असुविधा खड़ा करने वाले बुद्धिजीवी थे. अकारण नहीं कि उनके २००३ में लिखे उपन्यास ‘कोंगाल मालसाट’ ( भिखारियों का रणघोष) पर जब २०१३ में सुमन मुखोपाध्याय ने फिल्म बनाई, तो ममता बनर्जी सरकार उसे सहन न कर पाई. उसे सेंसर की तमाम आपत्तियां झेलनी पडीं. मूल उपन्यास में चोकटोर (काला जादू करने वाले) और फ्यातरू (उड़ने वाले मानव) ऐसे काल्पनिक पात्र हैं जिन्होंने सत्ता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है. इन विद्रोहियों को दंडबयोष ( चिर-पुरातन, सतत बतियाता रहनेवाला कव्वा) और बेगम जानसन के भूत ने प्रशिक्षित किया है. ये पात्र पारंपरिक योद्धाओं की तरह नहीं हैं, बल्कि आजीविका के लिए ये छल-कपट, झूठ-फरेब भी करते हैं, शराब भी पीते हैं. ये दबे-कुचले लोगों के जीवन के निर्मम यथार्थ को प्रतिबिंबित करते हैं. नबारून दिखाना चाहते हैं कि जनता ही विद्रोह की ताकत है, चाहे वह जितनी भी खराब भौतिक और भावपरक स्थितियों में हो. चंद शुद्ध और आदर्श क्रांतिकारी उसकी जगह नहीं ले सकते. इन विद्रोहियों के पास कोई अत्याधुनिक हथियार नहीं , बल्कि कुदाल, छुरा, सब्जी काटनेवाला चाकू, टूटे फर्नीचर के टुकड़े जैसे हथियार ही इनके पास हैं. इन्हें अतिप्राकृतिक सहायता के तौर पर छोटी-छोटी उड़नतश्तरी जैसी वस्तुएं भी हासिल हैं जो शत्रु की गर्दन धड़ से अलग कर देने की क्षमता रखती हैं. २०१३ में बनी फिल्म में मूल उपन्यास के बरअक्स स्क्रीन-प्ले में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए. बंगाल के सत्ता -परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए चोकटोर और फ्यातरू जैसे चरित्र जो कभी विद्रोह के प्रतिनिधि थे, उन्हें सत्ता, सम्मान और वित्तीय सुरक्षा के लिए सत्ता-प्रतिष्ठान का अंग बनते दिखाया गया है. इसीलिए दंडबयोष कहता है, ” लड़ाई जारी रहेगी, यह तो (सत्ता-परिवर्तन) सामयिक है.” इसलिए भले ही ममता सरकार और फिल्म बोर्ड ने आपत्ति गाली-गलौज की भाषा, आन्दोलन की हंसी उड़ाने, ममता बनर्जी का शपथ-ग्रहण दिखाने और उस पर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ करने पर की, लेकिन वास्तविक आपत्ति तो इस बदली हुई अंतर्वस्तु पर ही थी.
नबारून बिजॉन भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी के पुत्र ही नहीं, बल्कि वाम संस्कृतिकर्मियों की एक महान परम्परा के वारिस थे, जिसका अहसास उन्हें हर पल था.जन संस्कृति मंच के १३वें राष्ट्रीय सम्मेलन (२०१०, दुर्ग-भिलाई) को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “….मुझको ही पूछता हो, तुम तो तुम्हारा… जब तुम बच्चा थे, तब से बहुत लोग को देखा, तुम बिजॉन भट्टाचार्य का बेटा हो, उसके साथ था, तुम उत्पल दत्त को देखा, ऋत्विक घटक की फिल्म में तुम रिफ्लेक्टर..दिया है, तुम मानिक बाबू को देखा, तुम अरुण मित्र, विष्णु डे को, सुभाष मुखोपाध्याय को देखा, मखदूम मोहियुद्दीन को देखा, बलराज साहनी को देखा, Now how do you plan to re-view life? तुम क्या करोगे अब?….Should I go and join the market forces and create something for the market? Might be that will fetch me some money. Actually I require money, but I cannot afford to earn it by indecent means…क्योंकि आप लोग ये समझें कि .. मेरा एक नावेल है ‘ऑटो’ .. एक  auto-driver को लेकर. तो उसपर तो मैंने एक young aspiring filmmaker को बोल दिया कि तुम इसको बनाओ. उसका dreamहै filmबनाना.. और उसके बाद बंगाल का जो सबसे बड़ा heroहै, उसका जो industrial  production house है वो मुझको बोला -हमको’auto’दे दो , तुम को बहुत अच्छा ‘ये’ मिलेगा-‘price’. But I told him that, ‘Bhai! this is not for sale. It is my word  as given to him and he is a young man. If I don’t help the young man, he will reject me and all the youth will reject me in future.’ That is one thing I am afraid of. I don’t want two face. That will be ‘पाप’. Our Indian concept- ‘पाप’-Certain things should be renounced to gain something.और एक बात है …कि एक French intellectualथे Guy Debord. बहुत पगला था. मेरा याद में…Suicideकिया. उसका एक bookहै-‘The Society of the Spectacle’…..This damn bloody capitalist society is always trying to create spectacles. …. This society of spectacles must be challenged and that is the risk. That is what, not only our forefathers have done, it is also done by the international literati…. a great man like Aragon, like Eluard, like Neruda, like … everyone, so we belong to a very great heritage which we cannot renounce.”
नबारून दा के पास सिर्फ क्रान्ति की उल्लासमयी कल्पना ही न थी, उन्होंने क्रान्ति के दमन को, बुरी तरह से कुचले जाने के बाद, विभ्रम और विकृति की और ढकेले जाने के बाद भी, फिर फिर ‘हठ इनकार का सर’ तानते देखा. विश्व-क्रांतिकारी प्रयासों का उन्होंने भीषण शोध किया था. उपरोक्त भाषण में ही उन्होंने कहा था, ” And this is the heritage we must keep alive and this is the struggle in which we cannot lose… May be, we will die. You see, defeat is nothing, defeat isnothing.All the wars cannot be won. Che-Guevara didn’t win, but he has won it forever. That is the main thing.We must keep everything in perspective. We must fight globalization, we must fight local reaction, we must fight the show of military state power in the adivaasi area and we must protest everything illegal, evil and pathetic  that is happening in my country. “
 नबारून बंगाल के नक्सल आन्दोलन के आवयविक बुद्धिजीवी थे, जिसकी मूल प्रतिज्ञा और आशय को बदलती विश्व-परिस्थिति में सतत पुनर्नवा करते जाने की उनकी क्षमता अपार थी. ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ जैसी कविताएँ और ‘आमार कोनो भय नेई,तो?’ सरीखी तमाम कहानियां वास्तविक घटनाओं से प्रेरित हैं जिन्हें उन्होंने देखा भी था और भोगा भी था. महाश्वेता देवी ने अपने कालजयी उपन्यास ‘१०८४ वें की मां’ की निर्माण प्रकिया के बारे में अमर मित्र और सब्यसाची देब से बातचीत के दौरान कहा था कि, “….बारासात और बड़ानगर के दो जनसंहारों के बारे में हमें जानकारी थी. इन जगहों पर नक्सल युवकों का कत्लेआम हुआ था. लेकिन इससे पहले विजयगढ़ के पास श्री कॉलोनी में एक ह्त्या हुई. मेरे छात्र सुजीत गुप्ता की ह्त्या हुई थी, जिसके पिता एक डॉक्टर के कम्पाउण्डर थे. घटना के एक हिस्से की मैं साक्षी थी. बाकी बातें मुझे मेरे बेटे नबारून और दूसरे लोगों से पता चलीं. नबारून कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव रखते थे. उन्होंने अनेक तरीकों से नक्सलपंथियों की मदद करने की कोशिश की.” (Mahasweta Devi: In Conversation with Amar Mitra And Sabyasachi Deb(Indian Literature, Vol. 40, No. 3 (179), (May – June1997)
नबारून दा के लिए नक्सलबाड़ी कभी भी विगत रोमान नहीं रहा. उन्होंने उस आन्दोलन के ऐतिहासिक आशय को आत्मसात किया, नयी से नयी परिस्थिति के बीच उसकी विकासमानता को, भारत के वामपंथी आन्दोलन की परम्परा और दुनिया भर में चले क्रांतिकारी प्रयासों की विरासत के परिप्रेक्ष्य में उसको परखा और अपने कलाकार के लिए भी जीवित सच्चाई के रूप में सतत उसका नवोन्मेष किया.
उन्हें निरंतर उद्वेलित कलाकार का हृदय मिला था, जिसके चलते वे तमाम विधाओं में लगातार आवाजाही करते थे. फिल्म, थियेटर, कथा और कविता में बहुधा विधाओं के तटबंध तोड़ती हुई उनकी रचना-धारा प्रवाहित होती थी.  नबारून दा का कथाकार अमानवीय व्यवस्था पर मारक हमले संगठित करता है. उनकी कहानियों और उपन्यासों में कथा का ढांचा टूट-फूट जाता है, आख्यान विश्रंखलित होकर दूसरे आख्यानों में मिल जाते  है, पात्रों की आतंरिक  दुनिया भी भीषण रूप से विभाजित है, मानो वे एक साथ कई दुनियाओं में रहते और उनसे निर्वासित होते रहते हों, उनके कार्य-व्यापार और संवाद भी ऊपरी तौर पर असंगत और अतर्क्य (किन्तु अयथार्थ नहीं) लगते हैं, तब जो चीज़ उनके कथा-संसार को संरचना और उद्देश्य की एकता प्रदान करती है, वह है कथाकार की प्रचंड व्यस्था-विरोधी युयुत्सु चेतना जिसका निर्माण ‘७० और ‘८० के दशक के नक्सल आन्दोलन की आंच में हुआ है. उनका कथाकार जादू और फैंटेसी के हथियारों से लैस है. अपने समाज के कारोबार को नज़दीक से देखना ‘खतरनाक’ है क्योंकि इस तरह देखने से इस समाज(पूंजी की दुनिया) की निरंकुशता, अतार्किकता और असंगति साफ़ नज़र आती है. इस दुनिया को चलानेवाले मुट्ठी भर तत्व अपने मनमानेपन, व्यभिचार और अपराध को जब तर्क और यथार्थ के परदे से ढँक लेते हैं तब क्या तार्किक है, क्या अतार्किक, क्या यथार्थ है और क्या अयथार्थ, यह जानना सामान्य समझ से परे प्रतीत होता है. पूंजी की दुनिया ने तर्क और यथार्थ का जो कवच पहन रखा है, उसे भेदने के लिए ही महान कलाकारों ने जादू और फैंटेसी के हथियारों का सहारा लिया है.
नबारून दा हमारे समय में जीवित और कर्मरत ऐसे ही महान कलाकार थे. उनके पात्रों की हंसी-दिल्लगी उस रुग्णता और विकृति में लिथड़ी हुई है जिसमें रहने को इस दुनिया के अश्लील नियंताओं ने उन्हें विवश कर रखा है. उनके पात्रों की विकारग्रस्त दिल्लगी भी ज़िंदगी की तर्कहीनता और क्रूरता को उघाड़ कर रख देने की कला है. ‘हार्बर्ट’ (१९९३) और ‘काँगाल मालसाट’ (२००३) जैसे उनके उपन्यास उनकी इसी कलानिष्ठा के नमूने हैं.’हार्बर्ट’ के नायक ‘हार्बर्ट सरकार’ कायह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि वह गोरा है. उत्तरी कोलकाता में पला बढ़ा हार्बर्ट यतीम है. वह असुरक्षित, अकेला, खुद से घृणा करनेवाला, अधपगला, मृतात्माओं से संवाद करने का स्वघोषित माध्यम और खराब कवि है. जीवन में उसका एकमात्र प्रेम एकसाथ दुखांत और हास्यास्पद है. वह एक ऐसा पात्र प्रतीत होता है जिसकी नियति है असफलता और गुमनामी, लेकिन वह अपने झक्कीपने और बाजीगरी से पाठक को लगातार चौंकाता है. मानो कह रहा हो कि कोई भी जीवन कितना भी टूटा, बिखरा, अभिशप्त और हास्यास्पद क्यों न हो, वह बेमतलब नहीं है, उसमें मौलिक होने की अपार संभावना है. उपन्यास हार्बर्ट की आत्महत्या से शुरू होकर फ्लैशबैक में उसकी ज़िंदगी में उतरता है, न केवल अपने नायक के जीवन में बल्कि कोलकाता शहर के कई दशकों के अद्भुत जीवन तथा संस्कृति, राजनीति और मानव-स्वभाव की गहराइयों में उतरता चला जाता है, देश-काल के अनेक संस्तरों में आवाजाही निरंतर चलती रहती है. हार्बर्ट ने मृतात्माओं से संवाद के स्वघोषित हुनर से जो किस्मत बनाई थी, उसे तर्कबुद्धिवादियों द्वारा  फर्जी घोषित किए जाने और कानूनी कार्रवाई की धमकी दिए जाने के बाद, सदमें में वह आत्मघात कर लेता है. लेकिन जैसे ही इलेक्ट्रिक शवदाह के चैंबर में उसके शरीर को रखा जाता है, एक भीषण धमाका होता है और पूरी इमारत दरक जाती है , अनेक लोग जो आस-पास हैं, वे घायल होते हैं. अखबारों की सुर्ख़ियों में हार्बर्ट के मरणोपरांत उसकी ‘आतंकवादी’ गतिविधि की सुर्खियाँ हैं, जिसका रहस्य जानने के लिए उच्च स्तरीय जांच बैठाई जाती है. उसकी चमत्कारिक शक्तियों की विस्फोटक छाप उसकी मृत्यु के क्षण में और भी गहरा जाती है. इस जादुई यथार्थवाद के प्रतीकार्थ को न जाने कितने कोणों से कोई व्याख्यायित कर सकता है. नबारून दा की कला का मरणोपरांत जादू भी अमिट है और निस्संदेह उनकी कला शासक जमातों को उनके मरणोपरांत सदैव आतंकित करती रहेगी, चाहे वे जितनी जांच बैठा लें.
अभी तो उनकी पार्थिव अनुपस्थिति भी ज्वालामुखी के दहाने पर रखी चाय की केतली में खलबला रही चाय पर हम सब को आमंत्रित कर रही है-
कलम को काग़ज़ पर फेरते हुए/ आप दृष्टि को/ बड़ा नहीं कर सकते/ क्योंकि कोई नहीं कर सकता।/ दृश्य के नीचे जो बारूद और कोयला है/ वहाँ एक चिनगारी/ जला सकेंगे आप?/ दृष्टि तभी बड़ी होगी/लहलहाते/फूल फूलेंगे धधकती मिट्टी पर/फटी-जली चीथड़े-चीथड़े ज़मीन पर/ फूल फूलेंगे।/ ज्वालामुखी के मुहाने पर/ रखी हुई है एक केतली/ वहीं निमन्त्रण है आज मेरा/चाय के लिए।/हे लेखक, प्रबल पराक्रमी कलमची/ आप वहाँ जायेंगे?
( जन संस्कृति मंच की ओर से प्रणय कृष्ण द्वारा जारी )

भावनाएँ अस्तित्व की निकटतम अभिव्यक्ति हैं: गोरख पांडेय

By गोरख पांडेय
(यह डायरी इमर्जेंसी के दिनों में लिखी गयी । इसमें तत्कालीन दौर के साथ गोरख की निजी जिन्दगी भी दिखाई पड़ती है । याद रहे कि गोरख पाण्डे स्किजोफ़्रेनिया के मरीज रहे थे और इसी बीमारी से तंग आकर उन्होंने आत्महत्या भी की थी । अनेक जगहों पर डायरी की टीपें लू शुन की कहानी ‘एक पागल की डायरी’ की याद दिलाती हैं । चाहें तो उस कहानी की तरह इसे भी रूपक की तरह पढ़ सकते हैं अर्थात उनको महसूस हो रहे त्रास को आपात्काल के आतंक का रूपक समझकर । इसमें संवेदनशील कवि की अपनी ही बीमारी से जूझते हुए रचनाशील बने रहने की बेचैनी दर्ज है । आर्नोल्ड हाउजर ने लिखा है कि कलाकार अक्सर असामान्य होते हैं लेकिन सभी असामान्य लोग कलाकार नहीं होते । गोरख पांडेय की यह डायरी एक कवि की डायरी है- इसका अहसास कदम कदम पर होता है । स्किजोफ़्रेनिया का वह पहला हमला था । तनाव को आता हुआ वे महसूस करते हैं । फिर विवेक साथ छोड़ने लगता है । काल्पनिक प्रेम होने लगते हैं । कल्पना में ही मुलाकातें, कल्पना में ही प्रेमिका दुश्मन भेजती है । कल्पना में दुश्मनों से मुकाबला और उनकी पराजय । लेकिन जब कविता में यही अनुभूतियाँ प्रकट होती हैं तो उनकी परिपक्वता देखते ही बनती है । दोस्तों की भारी फ़ौज, उनके साथ स्त्रियों से लेकर तरह तरह के विषयों पर अनन्त बहसें । जिनका जिक्र इस डायरी में आया है उन सबका परिचय भाकपा (माले) से हो चुका था । सभी साथ हैं पर गोरख बनारस से भागते हैं । दिल्ली आने पर पुराने साथियों में थकान दिखाई पड़ती है । अन्तिम कविता में वे इन्हीं साथियों को पुकार रहे हैं । यह डायरी प्रोफ़ेसर सलिल मिश्र से प्राप्त हुई है – गोपाल प्रधान ।)
गोरख पांडेय
गोरख पांडेय
6—3—1976
कविता और प्रेम – दो ऐसी चीजें हैं जहाँ मनुष्य होने का मुझे बोध होता है । प्रेम मुझेसमाज से मिलता है और समाज को कविता देता हूँ । क्योंकि मेरे जीने की पहली शर्त भोजन, कपड़ा और मकान मजदूर वर्ग पूरा करता है और क्योंकि इसी तथ्य को झुठलाने के लिये तमाम बुर्जुआ लेखन चल रहा है, क्योंकि मजदूर वर्ग अपने हितों के लिये जगह जगह संघर्ष में उतर रहा है, क्योंकि मैं उस संघर्ष में योग देकर ही अपने जीने का औचित्य साबित कर सकता हूँ—–
इसलिये कविता मजदूर वर्ग और उसके मित्र वर्गों के लिये ही लिखता हूँ । कविता लिखना कोई बड़ा काम नहीं मगर बटन लगाना भी बड़ा काम नहीं । हाँ, उसके बिना पैंट कमीज बेकार होते हैं ।
8—3—1976 पाल्हामऊ गाँव (जौनपुर)
श्यामा को विभाग में सूचना दी कि दो-एक दिन मुझे यहाँ नहीं रहना है । वह उदास थी । धीरे धीरे वह मेरे ऊपर हावी होती जा रही है । मैं होने दे रहा हूँ ।
2 बजे बस स्टेशन टुन्ना के साथ । रिक्शे पर टुन्ना से कहा- कहो तो मैं एक कविता बोलूँ-
उसने जीने के लिये खाना खाया
उसने खाने के लिये पैसा कमाया
उसने पैसे के लिये रिक्शा चलाया
उसने चलाने के लिये ताकत जुटायी
उसने ताकत के लिये फिर रोटी खाई
उसने खाने के लिये पैसा कमाया
उसने पैसे के लिये रिक्शा चलाया
उसने रोज रोज नियम से चक्कर लगाया
अन्त में मरा तो उसे जीना याद आया
मिश्रा की शादी में शरीक हुए । मिश्रा वर की तरह चमक रहा है । बारात की तरह बारात । शादी की तरह शादी ।
9—3—1976
जौनपुर से गाजीपुर । पहिये खराब होते हुए । बसें रूकतीं और भागतीं । रामजी की शादी । ज्यादा खुला और निकट का माहौल । मीठा, चाय, पान, सिगरेट और दोस्त बहुतायत । रामजी की पत्नी दिखी । खूबसूरत लड़की । खुश है । रामजी उछलते कूदते । धर्म और अध्याम के विरुद्ध भाषण । चितरंजन, कृष्णप्रताप वगैरह । टुन्ना, अमित, महेश्वर । विनय भाई की कविताएँ । अद्भुत सहजता बच्चों सरीखी ।
नेतन क दवरी से जिनगी पुआल भईल ।
10—3—1976
रास्ते में । वापसी । पैसा । महेश्वर प्रधान । मैं । पैसा । महेश्वर । तनाव । मैं । पैसा । तनाव । महेश्वर । मैं । तनाव ।
11—3—1976
श्यामा नहीं दिखी । विभाग में परसों आई थी । कल नहीं । आज भी नहीं ।
12—3—1976
आज विभाग नहीं गया । खूब सोया । होली आयी । लड़के, लड़कियाँ घरों को चले । होली खेलने । रात को छात्रावास में कोई लड़का बहुत तेज चीखा- तेरी बहन की– । चीखती हुई यौनवर्जना । होली ।
ठप सा पड़ा हुआ है
देश
आपात स्थिति
सिर्फ़ चलती है
थम गयी है हलचल
शोर बन्द है
शान्ति बन्दूक की नली से
निकलती है
कामरेड,
कहीं कुछ हो रहा है ?
मुझे निराश मत करो
कामरेड,
बताओ कहीं कुछ हो रहा है ?
यह पहाड़ हड्डी पसली एक करता है
फिर भी महंगू चुपचाप
ढो रहा है
क्या यही सच है कामरेड
कि विचार और क्रिया में
दूरी हमेशा बनी रहती है
कामरेड, कितना मुश्किल है सही होना
कहीं कुछ हो रहा है कामरेड !
13—3—1976
परसों ललित कला की प्रदर्शनी देखी । साथ में अवधेश जी, श्रीराम पाण्डेय ।
एक मर्द का कन्धे से ऊपर का भाग औरत के जांघों और नाभि के बीच गायब हो गया है । प्रधान जी इस सिलसिले में टिप्पणी करते हैं कि एक व्यक्ति पीछे से उन्हें टोक देता है । बाद में पता चलता है कि वह चतुर्थ वर्ष का कला-छात्र है । उसके विचार से ‘हम जितना समझते हैं वह ठीक है ।’ वह कहना यह चाहता है कि वैसे तो हमारी समझ के पल्ले बहुत कुछ नहीं पड़ रहा मगर जो पड़ रहा है वह हम जैसे गंवारों के लिये काफ़ी है । फिर खड़े खड़े कला पर बहस ।
एक– चित्रकार अपनी भावनाओं के अनुसार चित्र बनाता है । दर्शक उसे अपनी भावनाओं के अनुसार समझता है । अगर चित्र दर्शक के मन में कोई अनुभूति उपजाने मेंसमर्थ हो जाता है तो चित्रकार सफल है ।
दो– क्या हमें हक है कि चित्र में व्यक्त कलाकार की भावना को जानें ? या वह मनमानी ढंग से कुछ भी सोचने के लिये छोड़ देता है ? क्या चित्रकार हमें अनिश्चित भावनाओं का शिकार बनाना चाहता है ? क्या वह अपना चित्र हमारे हाथ में देकर हमसे पूरी तरह दूर और न समझ में आने योग्य रह जाना चाहता है ? क्या उसे हमारी भावनाओं के बारे में कुछ पता है ?
अन्ततः क्या कलाकार, उसकी कृति और दर्शक में कोई संबंध है ? या तीनों एकदम स्वतंत्र एक दूसरे से पूर्णरूपेण अलग इकाइयां हैं ?
एक तरफ़ कलाकार आपातस्थिति की दुर्गा का गौरव चित्रित कर रहा है, दूसरी तरफ़ कलाकार आपातस्थिति को चित्र में लाना अकलात्मक समझकर खारिज कर देता है । ये दोनों एक ही स्थिति के मुखर और मौन पहलू नहीं हैं ?
बहुतायत उन चित्रों की है जिनमें सारी दुनिया सेक्स की धुरी पर घूमती नजर आती है । सचित्र कोकशास्त्र को शरमाकर अमूर्त बनाने की क्या जरूरत है ?
पेंसिल से बरगद का तना बनाया है किसी ने । खूबसूरत । वह लंका पर दिखने वाली लड़की जो मुझसे ऊब गयी थी, पता चला कि धर की सहछात्रा है । विधु वर्मा भी हैं । मैं विधु को देखता हूँ । धर ने बेंत से मोर बनाया है । बड़ा सा । बाहर खड़ा है ।
Of nature the ancients loved to sing the beauty:
Moon and flowers, snow and wind, mist, hills and streams.
But in our days poems should contain verses steely.
And poets should form assault teams.
The body is in jail
But thy spirit, never.
For the great cause to prevail
Let thy spirit soar, higher.
Every morning the sun, emerging over the wall
Beams on the gate, but the gate is not yet open
Inside the prison lingers a gloomy fall
But we know outside the sun has risen.
Nostalgically a flute wail in the ward
Sad grows the tone, mournful the melody.
Miles away, beyond passes and streams in infinite melancholy
A lonely wife mounts a tower to gaze abroad.
14—3—1976
आशा करना मजाक है
फिर भी मैं आशा करता हूँ
इस तरह जीना शर्मनाक है
फिर भी मैं जीवित रहता हूँ
मित्रों से कहता हूँ -
भविष्य जरूर अच्छा होगा
एक एक दिन वर्तमान को टालता हूँ
क्या काम करना है ?
इसे मुझे तय नहीं करना है
लेकिन मुझे तय करना है
मैं मित्रों को बुलाउँगा -
कहूँगा -
हमें (हम सबको) तय करना है
बिना तय किए
इस रास्ते से नहीं गुजरना है ।
मुझे किसी को उदास करने का हक नहीं
हालांकि ऐसे हालात में
खुश रहना बेईमानी है ।
हिंदी में कौन सुंदर लेखिका है ? महेश्वर के कमरे में बात आती है । एक लेखिका की विलेन जैसी छवि पर अटक जाती है । क्या पूर्वी उत्तर प्रदेश में सुंदर औरतें हैं ? पहले मैं सोचता था कि नहीं हैं । मेरा यह भ्रम चूर चूर हो गया । मध्यमा में जिस लड़की को चाहता था वह देवरिया के एक गाँव की थी । गोरी, कमल की लम्बी पंखुड़ी सी बड़ी आँखें मुझे अब तक याद हैं । याद है, किस तरह उसने एक बार हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा था, मैं सितार के कसे तारों की तरह झनझना उठा था ।
पिछले दिसम्बर तक जिस लड़की को चाहता था वह आजमगढ़ से आयी थी । उसने खुद को सजाने सवारने में कोई कसर नहीं रखी थी । बाब्ड, बेलबाटम, मासूम, कटार सी तीखी । लचीली, तनी हुई, प्रेम से डूबती, घृणा से दहकती । मैंने उसे कविता दी थी–
हिंसक हो उठो
मेरे लुटे हुए प्राण
अन्ततः वह हिंसक हो उठी ।
सवाल यह नहीं कि सुन्दर कौन है । सवाल यह है कि हम सुन्दर किसे मानते हैं । यहाँ मेरे subjective होने का खतरा है । लेकिन सच यह है कि सौन्दर्य के बारे में हमारी धारणा बहुत हद तक काम करती है । हम पढ़े लिखे युवक फ़िल्म की उन अभिनेत्रियों को कहीं न कहीं सौन्दर्य का प्रतीक मान बैठे हैं जो हमारे जीवन के बाहर हैं । नतीजतन बालों की एक खास शैली, ब्लाउज, स्कर्ट, साड़ी, बाटम की एक खस इमेज हमारे दिमाग में है । हम एक खास कृत्रिम स्टाइल को सौन्दर्य मानने लगे हैं । शहर की आम लड़कियाँ उसकी नकल करती हैं । जो उस स्टाइल के जितना निकट है हमें सुन्दर लगती है ।
फिर भी हम स्टाइल को पसन्द करते हैं, ऐसा मानने में संकोच करते हैं । फ़िल्में, पत्रिकाएँ लगातार औरत की एक कामुक परी टाइप तस्वीर हमारे दिमागों में भरती हैं, लड़कियों को हम उसी से टेस्ट करते हैं । हम विचारों के स्तर पर जिससे घृणा करते हैं भावनाओं के स्तर पर उसी से प्यार करते हैं । भावनाएँ अस्तित्व की निकटतम अभिव्यक्ति हैं । यह हुआ विचार और अस्तित्व में सौन्दर्यमूलक भेद । यह भेद हमारे अंदर चौतरफ़ा वर्तमान है ।
हमें कैसी औरत चाहिए ?
निश्चय ही उसे मित्र होना चाहिए । हमें गुलाम औरत नहीं चाहिए । वह देखने में व्यक्ति होनी चाहिए, स्टाइल नहीं । वह दृढ़ होनी चाहिए । चतुर और कुशाग्र होना जरूरी है । वह सहयोगिनी हो हर काम में । देखने लायक भी होनी चाहिए । ऐसी औरत इस व्यवस्था में बनी बनायी नहीं मिलेगी । उसे विकसित करना होगा । उसे व्यवस्था को खतम करने में साथ लेना होगा । हमें औरतों की जरूरत है । हमें उनसे अलग नहीं रहना चाहिए ।
15—3—1976
दिन मे खूब सोया । सपना देखा । पिता की गिरफ़्तारी हुई । सरकारी लोन न लौटाने की वजह से । मैंने घर का काम सम्हाला । खेत में काम करते वक्त जूता बदला ।
बदला शहर कि साथ में जूता भी बदल गया
बदले थे ब्रेख्त ने वतन जूतों से जियादह
लीडर ने भी देखा न था कब जूता चल गया
मिलते हैं अब गवाह सबूतों से जियादह
शाम को गम्भीर मानसिक जड़ता और दबाव । गोया बोल ही न सकूं । न हंस सकूं । महेश्वर, अमित, प्रधान, जलेश्वर सब इसे लक्ष्य करते हैं । यह परेशानी काफ़ी दिनों बाद हूई है । एक चट्टान सी दिमाग पर पड़ी हुई है । मैं हंसने की, हल्का होने की कोशिश करता हूं । लेकिन नाकामयाब । लगता है, भीतर ही भीतर कोई निर्णय ले रहा हूं । दुःखों के भीतर से और दुखी होने का निर्णय – ऐसा लगता है । अमित के कमरे में चाय पी । महेश्वर और कभी कभी प्रधान ने गाना गाया । जलेश्वर ने उर्दू शायर की नकल की । जड़ता कुछ टूटी । तब तक मैंने फ़ैसला भी कर लिया । मैं सु को पत्र लिखूंगा । लिखूंगा–
पता नहीं यह पत्र आप तक पहुंचे या नहीं । फिर भी लिख रहा हूं । आप को ताज्जुब होगा ।
आप नाराज भी होंगे । फिर भी मैं अपने आपको रोक नहीं पा रहा ।
आप को मेरे व्यवहारों से मेरे न चाहते हुए भी कष्ट पहुंचा । (मैंने लिखा है न चाहते हुए । आप गुस्से में इसका अर्थ चाहते हुए लगा सकते हैं । उन दिनों आप मेरे प्रति जितना खौफ़नाक पूर्वाग्रह के शिकार थे, उसमें सहज ढंग से मेरी हर बात का उल्टा ही अर्थ आपके दिमाग में आया होगा ।)
खैर, जब आपने मेरे प्रति हमलावर रुख अख्तियार किया, तब भी मैं आप पर नाराज नहीं हो सका । नाराज हुआ तो सिर्फ़ एक आदमी पर । उस पर, जिसने मेरे ऊपर हमले की योजना बनायी ।
नाराजगी से ज्यादा सदमा लगा मुझे । पूरी तरह गलत समझ लिये जाने का सदमा । आप लोगों की निगाह में वे तमाम लोग सही हो गये जो झूठ और पाखण्ड के साये में पलते हैं । मैं गलत हो गया । अगर इसे अहंकार न मानकर तथ्य का विवरण देना समझा जाय तो मैं अपने बारे में कह सकता हूं कि मैंने कदम कदम पर पाखण्ड और दमन के खिलाफ़ बगावत की है । मैंने अतीत में एक लड़की से सम्बन्ध इसीलिए तोड़ा था कि उसके साथ मेरा सम्बन्ध पूरी तरह से पाखण्ड और दमन पर आधारित था । उसे एक सेकण्ड के लिए भी न चाह सका । साथ ही वह सम्बन्ध मेरे पिता द्वारा बचपन में पैसे के आधार पर तय किया गया था । पिता से नफ़रत करने और उनके निर्णयों को नष्ट करने की कड़ी में यह घटना भी हुई थी ।
अपने बारे में सफाई देना जरूर कष्टप्रद स्थिति है । मुझे कतई पसन्द नहीं । फिर भी मैं तमाम बार बौखला सा उठता हूं कि मुझे क्यों इस तरह गलत समझा गया । आपने पूछा था कि मैं आपको दलाल समझता हूं ? मैं आपसे जानना चाहता था कि क्या आप मुझे लम्पट और व्यभिचारी समझते हैं ? आपके पास इसका प्रमाण नहीं है । आपको ताज्जुब होगा कि मुझे लड़कियाँ लगातार फ़ेवर करती हैं । इसका कारण मुझे नहीं पता । लेकिन यह तथ्य है । आपको ताज्जुब होगा यह भी जानकर कि आज तक पूरे जीवन में दो-चार वाक्य अगर मैंने किसी लड़की से कहे हैं, तो वह यही है । उसने मुझे खुद ही बात करने(या सुनने !) के लिए अप्रत्यक्ष तरीके से कहा था । इसका यह मतलब नहीं कि मैं उससे प्रभावित न था । प्रभावों के बावजूद मैं टालने की कोशिश करता रहा था ।
वह अंततः हिंसक हो उठी । मैंने उसे पढ़ने को एक कविता दी थी । उसमें कहीं लुटे हुए प्राणों को ‘हिंसक’ होने को कहा गया है । उसने हिंसक होकर, मुझे लगता है, कविता की सलाह को लागू कर दिया । लेकिन किसके ऊपर हिंसा ? उन पर जो हिंसा के लगातार शिकार हैं या उन पर जो हिंसा से शिकार बनाते हैं ?
उसे मुझसे सिर्फ़ शिकायत यह हो सकती है कि उसके सामने खुलकर मैंने अपने अतीत और वर्तमान की परिस्थितियों को नहीं रखा । इस काम में उसने भी मुझे मदद नहीं दी । एक तो मैं खुद इस मामले में बहुत काम्प्लिकेटेड हो गया हूं, दूसरे जब भी प्रयास किया उसने नकारात्मक रुख अपनाया । कई बार तो लगा कि उससे बात करते ही शायद रो पड़ूंगा या ऊल-जलूल बक जाऊंगा । सो, रुक गया । फिर परिस्थिति और जटिल होती गयी ।
हालांकि कई मामलों में मैं अपने आपको मूर्ख मानता हूं लेकिन वह बिल्कुल मूर्ख साबित हुई । कभी कभी सोचता हूं कि उसने गद्दारी की । लेकिन फिर लगता है कि यह उसके प्रति शायद ज्यादती होगी । (मजे की बात यह है कि वह मुझे ही गद्दार समझती है !)
वैसे तो आपको पत्र लिखकर धन्यवाद देने की बहुत पहले से इच्छा थी मगर इस बीच दो तीन घटनाओं ने मुझे उत्तेजित कर दिया । उसने अपने एक सहपाठी से मेरे बारे में बिल्कुल एकांगी सूचनाएं दीं । याने कि झूठ बोल गई । मैंने इसके लिए उसे एक बार अप्रत्यक्ष ढंग से डांटा था । फिर आप लंका पर दिखाई पड़े । कई बार आपसे बात करने की इच्छा हुई । लेकिन आप कहीं फिर मुझे गलत न समझ बैठें, इसलिए रोक गया ।
आपको मेरे या मेरे किसी मित्र के व्यवहार से कष्ट पहुंचा हो तो मुझे सख्त अफ़सोस है । मुझे आपसे कभी कोई शिकायत, कोई नाराजगी कतई नहीं रही । उसके प्रति जरूर गुस्सा रहा है, जो मेरा ख्याल है कि समय के साथ धीरे धीरे खतम हो जायेगा—-
(हां, आपको सूचित कर दूं कि किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति को चाहा जाना अपराध नहीं है । गैर जिम्मेवारी और झूठ अपराध है । नारी मित्र चुनने का पूरा अधिकार मुझे है । मैं इसके लिए कानून के पोथों को गैर जरूरी मानता हूं । किसी का मूल्यांकन करते वक्त हमें अपने दृष्टिकोण का भी मूल्यांकन करना चाहिए ।)
बहुत बहुत धन्यवाद
आपका
16—3—1976
होली खेली गयी । खाना हुआ । सोये । शाम को शहर की ओर । महेश्वर, प्रधान, अमित,जलेश्वर, बलराज पाण्डेय । बलराज पाण्डे पत्नी से झगड़कर हास्टल अकेले आये । अस्पताल में अनिल नाम के प्यारे से बच्चे को अबीर लगाया गया । अमित हैदराबाद से अनुत्साहित और विवर्ण सा लौटा । विनोद जी को बुखार है और सिर में काफ़ी दर्द ।
लंका से अस्सी की ओर बढ़ने पर देखा कि नी के घर के पास एक और मकान उठ रहा है । काफ़ी उठ चुका है । अस्सी पर कालोनी की ओर मुड़ने वाले रास्ते की तरफ़ निगाह गयी ।
फिर तेरे कूचे को जाता है खयाल
दिले – गुमगश्ता मगर याद आया
शेखर इन्तजार ही कर रहा था । बहुत प्यारा लड़का है । इस शहर में एकमात्र आदमी जिसने हम सभी को अपने घर निमंत्रित किया था । वैसे रास्ते में नेपाली कवि श्री शेखर वाजपेयी जी मिले । मीठा, पूड़ियां, नमकीन, शराब, गोश्त- उसने सब कुछ खिलाया । हम प्रसन्न हुए । फिर अस्सी चौराहे पर देखा कि शास्त्री जी की दुकान बदल गयी है । बड़ी और खूबसूरत सजावट । केदार जी ने मस्ती में अबीर चारों तरफ़ छिड़क दिया ।
पाण्डे जी के साथ उनके घर । राय जी से परिचय हुआ, उनके पड़ोसी हैं । काशी विद्यापीठ में रिसर्च । दोनों की पत्नियां । महेश्वर औरतों के अलग होने से क्षुब्ध हैं । पान, सिगरेट । अन्त में मेरे मुंह से निकलता है – आप लोग जरा स्वतंत्र होइए भाई ।
नन्दू के घर – रास्ते में चन्दन भाई और क्रिस्टोफ़र । गोरख दा, उनके बच्चे, मां, दीदी सब घर पर । वहां भी मीठा मिला । लौटते रास्ते में नन्दू मिले । भांग में मस्त । कई लोगों के साथ चाय पीने चले । साथ में धर भी हो गया है । वहां गाना और कविता । भांग की कुल्फ़ी ली जा चुकी है । धर कलकत्ता की खुशखबरी देता है । डायनामाइट । टूटना । निकलना । लौटे । पैदल ही जाना है । पैदल ही आना है । महेश्वर के कमरे में चाय बनी । फिर थककर सो गये । सुबह देर से उठे । लगा, शाम हो गयी है ।
आज शाम को लंका घूमे । दिन में कपड़ साफ़ किया । पत्र लिखा । स्वप्न देखा कि एक बस ड्राइवर खड्ड में गिरने से बस को रोकने के लिए उसे पीछे मोड़ने की कोशिश कर रहा है । अब थीसिस पर कुछ काम शुरू करना है ।
18—3—1976
प्रधानमंत्री का कहना है-
विरोधियों की गैर जिम्मेदाराना
हरकतें देखते हुए-
उन्हें प्रधानमंत्री बने रहना है ।
उन्हें मालूम नहीं
उनके पिता जब प्रधानमंत्री थे
तब उन्होंने प्रधानमंत्री
होना चाहा था ।
होने के बाद भी
उन्हें मालूम है कि प्रधानमंत्री
होना उन्होंने चाहा न था ।
उनका लड़का भी नहीं चाहता
प्रधानमंत्री होना
लेकिन नहीं चाहने के बावजूद
हो जायेगा
तब बतायेगा- उसे बने रहना है ।
एक बिल्कुल बेहूदा जीवन । पंगु, अकर्मण्य समाज विरोधी जीवन । क्या जगह बदल देने से कुछ काम कर सकूंगा ? मैं बनारस तत्काल छोड़ देना चाहता हूं । तत्काल । मैं यहां से बुरी तरह ऊब गया हूं । कुछ भी कर न पा रहा । मुझे कोई छोटी मोटी सर्विस पकड़नी चाहिए । और नियमित लेखन करना चाहिए । यह पंगु, बेहूदा, अकर्मण्य जीवन मौत से बदतर है । मुझे अपनी जिम्मेदारी महसूस करनी चाहिए । मैं भयानक और घिनौने सपने देखता हूं । लगता है, पतन और निष्क्रियता की सीमा पर पहुंच गया हूं । विभाग, लंका,छात्रावास लड़कियों पर बेहूदा बातें । राजनीतिक मसखरी । हमारा हाल बिगड़े छोकरों सा हो गया है । लेकिन क्या फिर हमें खासकर मुझे जीवन के प्रति पूरी लगन से सक्रिय नहीं होना चाहिए ? जरूर कभी भी शुरू किया जा सकता है । दिल्ली में अगर मित्रों ने सहारा दिया तो हमें चल देना चाहिए । मैं यहां से हटना चाहता हूं । बनारस से कहीं और भाग जाना चाहता हूं । मैं जड़ हो गया हूं, बेहूदा हो गया हूं । बकवास करता हूं । कविताएं भी ठीक से नहीं लिखता । किसी काम में ईमानदारी से लगता नहीं । यह कैसी बकवास जिंदगी है ? बताओ, क्या यही है वह जिंदगी जिसके लिए बचपन से ही तुम भागमभाग करते रहे हो ? तुमने समाज के लिए अभी तक क्या किया है ? जीने की कौन सी युक्ति तुम्हारे पास है ? बेशक, तुम्हे न पद और प्रतिष्ठा की तरफ़ कोई आकर्षण रहा है न अभी है । मगर यह इसीलिए तो कि ये इस व्यवस्था में शोषण की सीढ़ियां हैं ? तो इन्हें ढहाने की कोई कोशिश की है ? कुछ नहीं कुछ नहीं । बकवास खाली बकवास । खुद को पुनर्निर्मित करो । नये सिरे से लड़ने के लिए तैयार हो जाओ ।
मैं दोस्तों से अलग होता हूं
एक टूटी हुई पत्ती की तरह
खाई में गिरता हूं
मैं उनसे जुड़ा हूं
अब हजारो पत्तियों के बीच
एक हरी पत्ती की तरह
मुस्कुरा उठता हूं ।
मेरे दोस्तो के हाथ में
हथकड़ियां
निशान मेरी कलाई पर
उभरते हैं
हथकड़ियां टूटती हैं
जासूस मेरी निगाहों में
झांकने से डरते हैं ।
22—3—1976
फिर अद्भुत दुर्घटना हो रही है । सु आया 4-5 दिन पहले । बीस तारीख की शाम को गी भी लंका पर दिखी । बाल बांध रखे थे । बहुत सीधी-सादी लड़की लग रही थी । बगल से उसका चेहरा दिखाई पड़ा । दुखी-सी लगी । महेश्वर आदि ने दूर आगे जाकर उसे करीब से देखा । मैंने किसी से कहा- ‘चलो । उन्हें छोड़ आयें । वह हमारे घर आयी हैं ।’ वह एक दुकान पर कुछ खरीदने के लिए रुकी । मैं वहां रुककर दुकान से उसके उतरने का इन्तजार करता रहा । घबराहट और उत्तेजना में तेजी से इधर उधर टहलता रहा । वह उतरी । एक बार उसने मेरी तरफ़ देखा । फिर मैं और सारे दोस्त लौट पड़े । के पी, प्रधान, महेश्वर,टुन्ना, अमित सबने उसे देखा । महेश्वर ने कहा- गुरू, मैं तुमसे ईर्ष्या करता हूं । मेरे अंदर किसी भी लड़की के बारे में यह सोचने की इच्छा क्यों नहीं उभरती कि वह हमारे घर आयी है । चलो, उसे छोड़ आयें । मेरे अंदर प्रेम की यह भावना क्यों नहीं उभरती ? वह बहुत भावुक हो गया है । कल, यानी इक्कीस को दिन में हम सभी अस्सी तक गये थे । कोई नहीं दीखा । आज शाम को सु एक महिला के साथ हम सबके करीब से गुजरा । वह गम्भीर लग रहा था । बाद में हम उसके घर की तरफ़ से अस्सी तक गये । फिर दूसरी तरफ़ से लौट आये । शेखर से उसकी बातें नहीं हुईं । यह अच्छी बात नहीं है । वैसे मैंने मिलने को उससे लिख दिया है । मैं अपनी तरफ़ से कोई शिकायत नहीं रहने देना चाहता ।
24—3—1976
कितना गहरा डिप्रेशन है । लगता है मेरा मस्तिष्क किन्हीं सख्त पंजों द्वारा दबाकर छोटा और लहूलुहान कर दिया गया है । जड़ हो गया हूं । कुछ भी पढ़ने-लिखने, सुनने समझने की इच्छा ही नहीं होती । ठहाके बन्द हो गये हैं । सुबह इन्तजार करता रहा । कोई नहीं आया ।
फ़ैज की कविता ‘तनहाई’ -
फिर कोई आया दिलेजार ! नहीं, कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जायेगा ।
ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खड़ाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चिराग
सो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुजर
अजनबी खाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग
गुल करो शमएं, बढ़ा दो मयो-मीना-ओ-अयाम
अपने बेख्वाब किवाड़ो को मुकफ़्फ़ल कर लो
अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आयेगा ।
मुझे शक हो रहा है कि मेरे देखने, सुनने, समझने की शक्ति गायब तो नहीं होती जा रही है । अगर मेरे पत्र के बाद उन्हें देखा, तो निश्चय ही वे सम्बन्धों को फिर कायम करना चाहते हैं । अगर नहीं, तो हो सकता है कि मैंने भ्रमवश किसी और को देखकर उन्हें समझ लिया हो । यह खत्म होने की, धीरे धीरे बेलौस बेपनाह होते जाने की, धड़कनें बन्द कर देने वाले इन्तजार की सीमा कहां खत्म होती है ? क्या जिन्दगी प्रेम का लम्बा इन्तजार है ? अगर मैं रहस्यवादी होता तो आसानी से यह कह सकता था । लेकिन मैं देखता हूं, देख रहा हूं,कि बहुत से लोग प्रेम की परिस्थितियों में रह रहे हैं । अतः मुझे अपने व्यक्तिगत अभाव को सार्वभौम सत्य समझने का हक नहीं है । यह एक छोटे भ्रम से बड़े भ्रम की ओर बढ़ना माना जायेगा । मुझे प्रेम करने का हक नहीं है, मगर इन्तजार का हक है । स्वस्थ हो जाऊंगा, कल शायद खुलकर ठहाके लगा पाऊंगा ।
25—3—1976
तुम्ही कहो कि तेरा इन्तजार क्यों कर हो
दर्द, तनहाई, खमोशी ही बहुत ज्यादा है
तुम्ही कहो कि मुझे तुमसे प्यार क्यों कर हो
मैं तुम्हे एक बहुत ही उत्पीड़ित और उग्र आत्मा मानता हूं । मैं तुम्हे सचमुच चाहता हूं । मैं तुम्हे सुखी देखना चाहता हूं । लेकिन मेरी प्रिय, क्या अच्छा न होगा कि हम एक दूसरे को बिल्कुल भूल जाएं । तुम जिद पकड़ लेती हो तो फिर मान ही नहीं सकती । मैं तुम्हारा सम्मान करता हूं । तुम्हारी सुविधा के लिए भरसक प्रयास करता हूं । लेकिन तुम क्या करती हो ? तुम्हारे लिए कितनी दूर दूर तक अपने आपको झुका लेता हूं । बखुशी । लेकिन तुम हो कि झुकने का नाम नहीं लेतीं । तुम सु को क्यों नहीं मेरे पास भेजती हो ?मैं क्या करूं कि तुम्हे सुखी और तनावमुक्त बना सकूं ?
25—3—1976
घबरा गया, दो बजे वहां उसके कालेज जाना है । दूबे से कहा, उसने मोटर साइकिल किसी की ली । जाने को तैयार हो गया । तब तक मिश्रा आया । साइकिल से । मैं, मिश्रा, यादव,दूबे ttc चले । TTC पुस्तकालय में वही उसकी चिरपरिचिता दर्शन में सहपाठिनी बैठी है । उसने मुझे देखकर मुंह फेर लिया । क्लासों में उसे ढूंढ़ा । एक जगह लगा, वह है । फिर इन्तजार करने लगा । मिश्रा ने बताया, वह पुस्तकालय के सामने खड़ी है । गया, नहीं दिखी । मिश्रा पीछे लान की ओर गया । वह वहां दो तीन लड़कियों के साथ बैठी है । तो छुप रही है । मुझे लगा, मुझसे छुप रही है । तुरन्त चल देने को कहता हूं मिश्रा से । फिर रुक जाता हूं । 4 की घंटी बजती है । लड़कियां मोटर पर बैठने के लिए आती हैं । वह भी । वह आंख बन्द किए, गहरी मुस्कान के साथ धीरे धीरे चलती हुई बस में चली जाती है । मिश्रा के साथ चल देता हूं । खुश हूं । उसे देखकर । वह कालेज में लड़कों के साथ घुलमिल गयी है । किसी लड़के के साथ एक खाली कमरे में बैठने की वजह से वह कमरा लाक कर दिया गया है । वह एन्जाय कर रही है । अच्छी बात है । मुझे लग रहा है कि मैं उसके पीछे गलत पड़ा हूं । उन दिनों वह मुझे चाहती थी । अब वह नहीं, मैं उसे चाहता हूं । फ़र्क है, बहुत बड़ा फ़र्क । नहीं । खैर सुधीर मिलता है तो उससे बात करूंगा । उसके बाद खत्म । वैसे इसे खत्म ही समझा जाना चाहिए । वह मेरे साथ हो भी गयी तो टूटते स्वास्थ्य, अभावग्रस्त गृहस्थी के माहौल में उस अत्यन्त सजीव लड़की को, जिसे भरपूर जीने का हक है, मैं परीशान ही करूंगा । नहीं, मुझे उसके प्रति एक लिजलिजा मोह घिर आया है । जबकि वह उच्छल, उन्मुक्त, सहज, स्वस्थ, सुखी नजर आ रही है । उसे किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं । उसे मुझे प्यार करने की वजह से कष्ट नहीं । अगर प्यार नहीं तब भी मेरी तरफ़ से कष्ट नहीं । नहीं, नहीं, नहीं ।
मुझे मेरे प्यार ने खुद-ब-खुद सौंप दिया
हत्यारों के हाथ में
एक लम्बे अर्से तक उसका इन्तजार किया
चुपचाप समूचे अस्तित्व से मैंने
इन्तजार किया
वह झटके में दिखाई पड़ी
आवाज दी, उसने मेरी आवाज दोहरायी
ठहरो आ रही हूं
फिर अंधेरे में गायब हो गयी
मैंने खुद को एक नदी की तरह
उसकी ओर बहते हुए पाया
उसने मुझे मुस्करा कर देखा
मैंने उत्तेजित कण्ठ से मुक्ति का गीत गाया
बार बार मुझे लगा- इतना प्यार सह
नहीं सकूंगा या तो उसके पैरों पर
गिरकर रो पड़ूंगा या दुश्मन
हमला करेगा मैं उसकी मार से
जीवित रह नहीं सकूंगा ।
चुपचाप, समूचे अस्तित्व से उसका
इन्तजार किया
वह मुझे फूलों में मिली
जब धूप पंखुड़ियों को जला देती है
वह खिड़कियों पर मिली जब उनके
बन्द होने का वक्त होता है
वह मिली ट्रेन की थरथराती सीटियों में
जब प्लेटफ़ार्म खाली हो चुकते हैं
एक दिन अस्पताल में बिना दवा के
कराहती दम तोड़ रही थी कि मिली
उसने मेरी ओर देखा- देर हो चुकी है
मैंने अपराधी की तरह सिर झुका लिया ।
मिली वह मुझे मगर तब जब कि
शेर उसके मासूम शरीर पर अपने
खूनी पंजे जमा चुका था-
मैंने सोचा-
शेरों के राज्य में प्यार की हिफ़ाजत
के लिए हथियार और साहस बेहद जरूरी हैं
और सभी नरभक्षियों का बेमुरौव्वत
सफ़ाया कर दिया जाना चाहिए ।
एक दिन इशारे से बुलाकर उसने कहा-
देखो, मैं इस मकान में कैद हूं
किसी तरह बाहर निकालो
ओह, तुम उस राजकुमार के इन्तजार में हो
जो घोड़े पर सवार तलवार चमकाते हुए आयेगा
और जंजीरें काटकर तुम्हे उड़ा ले जायेगा ?
ऐसा, नहीं प्रिय, राजकुमार एक धोखा है
एक स्वप्न जो कभी पूरा नहीं होगा
आओ मिलजुलकर आदमी की तरह
बेड़ियां काटें ।
उसने कहा- मेरे हाथ कोमल हैं
और ये तो फूल हैं जिन्हे तुम जंजीरें
कहते रहते हो, सो, मुझे मेरे हाल पर
छोड़ दो, मुझे बाहर धकेलते हुए
उसने दरवाजा धड़ाम से बन्द किया ।
लेकिन वह मेरी निगाहों में थी नसों में
खून की तरह बहती और धड़कती हुई
रात का स्वप्न और दिन की कल्पना थी
वह मेरे लिए मेरे अस्तित्व से ज्यादा जरूरी थी
एक दिन वह फिर मिली अज्ञान, भूख और
थकान से टूटी हुई- मेरी जेब खाली थी
मजबूरी से उसे देखा, क्षमा मांगी, मानो
गलती हो गयी हो
उसने कहा- तुम धोखा दे रहे हो किस
बूते पर मुझसे उम्मीद की ?
मैंने कहा- झूठ और लूट के दौर में
हमारे पास सिर्फ़ दो ही रास्ते हैं-
चोरी या बगावत
उसने मुझे नफ़रत से देखा- पाखण्ड है
तुम्हारी हरेक बात, हर शब्द एक छल है
उसने मेरे मुंह पर थूक दिया और वहीं
सूखे गोश्त की गठरी सी ढेर हो गयी
मैंने उसे फिर से आवाज दी- उठो, मेरी
प्राण, मुक्ति की लड़ाई देश देश में शुरू
हो चुकी है आओ हम भी शामिल हों
जीवन को बेहतर बनाने के लिए अगर
लड़ते हुए मारे भी गये हम
सम्मानित ही होंगे
इस बार आवाज लगाते लगाते मेरे
फेफड़ों में दर्द शुरू हो गया था
सोचा था- इस बार प्यार मुझे जरूर
मिलेगा
लेकिन मिले हत्यारे
उन्होने कहा- तुमको वैधानिक तरीकों
से फांसी दी जायेगी
काफ़ी पियो, घबराओ नहीं
मैंने कहा- अगर मैं अपराधी हूं
मुझे सिर्फ़ प्यार के सामने ही सफाई देनी है
अगर मैंने कभी विश्वास तोड़ा है
मुझे गोली मार दो
अगर मैंने कभी नफ़रत के सामने घुटने टेके हैं
मुझे गोली मार दो
अगर सचमुच प्रेम जुर्म है तब मेरे साथ
उसे भी गोली मार दो जिसने प्यार को
सम्भव कहा था
उसने मेरे सिवा और कोई दूसरी शर्त नहीं
रखी थी
मगर हत्यारे क्या सुनते हो हो कर हँस
पड़े- हमें उसी ने भेजा है
उन्होंने कहा- तुम्हारे ऊपर नाजायज
तरीके से माल हड़पने का आरोप है
जबकि कानून में व्यक्तिगत सम्पत्ति
को पवित्र माना गया है ।
आखिरकार, मुझे मेरे प्यार ने खुद-ब-खुद
सौंप दिया हत्यारों के हाथ में ।
27—3—1976
26 को विभाग में कविता पढ़ी । लड़के हल्के फुल्के ढंग की चीज सुनना चाहते थे । वह बिल्कुल गम्भीर नहीं होना चाहते थे । बोर हो गये । लेकिन मैंने जबरन सुनाया । एक लड़की, जो काफ़ी दिनों से मुझे अपनी ओर प्रेरित करना चाहती है, पढ़कर चलते वक्त, कह पड़ी,’बहुत बोर किया’ । मैं हक्का बक्का था । सचमुच मुझ पर उसने बड़ी चोट की । इसका प्रभाव यह हुआ कि कुछ देर तक मैं उसकी ओर बगैर देखे पड़े रहने के बाद, कुछ गुस्से में और कुछ खुशी में देखने लगा । वह बाल वगैरह झटकने लगी, उत्तेजित और खुश । फिर मैंने withdraw कर लिया । वह खुश रही, फिर दुखी हो गयी । वह जरा छरहरी नहीं है । वर्ना ठीक है । लड़कियां बहुत अच्छी होती हैं । गी बहुत अच्छी है । रात में यादव ने बताया कि वह काफ़ी गम्भीर थी आज । मुझे सुनकर फिर उसके प्रति मोह जगा । यह ठीक नहीं । उसे खुश रहने का हक है । वैसे पता है कि नकली जिन्दगी जीने के लिए वह खुद को तैयार कर चुकी है । नकली जिन्दगी, झूठ, खुशी ये सब हमारी औरत की शोभा हैं । हमें चाहिए कि उनके बदलाव का उपाय करें लेकिन इसकी तकलीफ क्या वे झेल पायेंगी ? यह बिना व्यवस्था के बदले नहीं हो सकता ।
खुश रहो जहां भी रहो तुम जाने जिगर
कभी कभी हमें भी याद कर लिया करना
28—3—1976
आज खूब सोया । कुछ नहीं किया । अब लिखने बैठ रहा हूं ।
29—3—1976
को अंधेरा, रास्ते में बारिश ।
30—3–1976
को बारिश, फिर रोशनी ।
31—3—1976
दवा की तलाश में गोदौलिया ।
दवा नहीं मिली । संयोग से सु मिला । hello. वह मुस्कुराया । फिर चौराहे तक साथ साथ आये । चाय पीने की बात उसने अस्वीकार की । मैंने कहा- कभी मिलिए । उसने सिर थोड़ा झुकाकर सोच की मुद्रा अपनायी । फिर स्वीकार के लहजे में सिर हिलाया । मैंने गर्मजोशी से हाथ मिलाया । शाम को जैसे उसका इन्तजार करता रहा । वह निश्चित रूप से उसके द्वारा भेजा गया था लंका पर । फिर जब बुला रहा हूं तो क्यों नहीं आता ?
शायद उसने stand बदल दिया है !
मैं इन्तजार में जड़ हो जाता हूं । लिख पढ़ नहीं पाता । थीसिस का काम पड़ा है नहीं कर पाता । मैं यह सब क्या कर रहा हूं ? यह मूर्खता, यह मेरी प्रचण्ड और घातक मूर्खता । मुझे क्या करना चाहिए ? कुछ समझ नहीं पाता । अगर वह नकार रही है तो वह आयी ही क्यों उस दिन ? क्या यह देखने कि अभी तक मैं उसके पीछे जा सकता हूं या नहीं । अपनी ताकत आजमाने ? अगर यह बात है तो उसे खुश होना चाहिए क्योंकि मैं गया उसके पीछे । मैंने उसे follow किया । लेकिन अगर वह सचमुच contact बनाना चाहती है तो उसे क्यों नहीं भेजती । शायद उसने आने से इन्कार कर दिया हो । नहीं, वह आने से इन्कार नहीं करेगा । वही नहीं भेजती । तब इसके दो कारण हो सकते हैं । पहला, वह चाहती है कि मैं college जाकर उससे बातें करूं । दूसरा, यह कि वह इस किस्से का अन्त चाहती है । अगर अन्त चाहती है । तो कोई बात नहीं (टुन्ना से साभार) अगर नहीं चाहती तो मुझे जाना चाहिए या नहीं । मुझे जाना चाहिए । लेकिन मैं डर जाता हूं कि वहां जाकर अगर परिस्थितियां नार्मल नहीं मिलीं तो मैं बात न कर सकूंगा । इसीलिए तो मुझे सु की जरूरत महसूस होती रही है । अगर सु मुझे हेल्प नहीं करता तो क्या वह मेरी c में प्रतीक्षा करती रहे, मैं कभी जा न सकूं और सब कुछ खत्म हो जाए, सब कुछ खत्म हो जाए । अच्छा, यह सब कुछ खत्म हो जाए । मैंने अपनी तरफ़ से सारी बातें स्पष्ट कर दी हैं । उसे तमाम मौका है, सोचने समझने का । मैं इन्तजार करूंगा । खत्म हो जाने तक । अच्छा है ।
1—4—1976
हवाई प्यार की दुनिया में सब कुछ अनोखा है । आप जिसे चाहते हैं, उससे बात नहीं कर सकते । उसके लिए मर मिटना चाहते हैं, मगर उससे एक शब्द तक आप बोल नहीं सकते ।
उसकी इच्छा है कि college में मैं उससे मिलूं और बात करूं । यह नहीं हो सकता । मैं कायर, हृदयहीन , भग्नाकुल, जड़, स्तब्ध हो गया हूं । उसने मुझे कई बार माफ़ किया है । मैं उसके सामने छोटा, बहुत छोटा लग रहा हूं । वह साहस में, उदारता में,समझ में हर चीज में मुझसे आगे निकल गयी है । सु से आशा लगाना हम सबके लिए गलत है । यह कैसा प्यार कि एक तीसरा आदमी, भले ही वह बहुत करीबी हो, मदद करे, तब चले वर्ना ठप हो जाय । नहीं, हममें प्यार व्यार कुछ नहीं, एक हवाई आकर्षण है जो सिर्फ़ लहूलुहान करके जमीन पर औंधे मुंह गिरा देता है । तब लगता है कि जमीन सचमुच कितनी खुरदुरी और सख्त है । मैं उससे क्षमा मागूंगा, कभी सीधे बोल न पाने के लिए क्षमा । वह शायद क्षमा कर भी दे, मगर मैं खुद को कतई क्षमा नहीं कर सकता । मैं उसके साथ खिलवाड़ करता रहा हूं । नहीं, यह गलत है । मैं उसे चाहता रहा हूं । मगर शायद अब हम इतने दूर चले आये हैं कि पीछे लौटने के रास्ते बन्द हो चले हैं । April’s fool No. 1 I am.
2—4—1976ऽ
आज फिर तनाव । नसों का दबते चले जाना, उसी पर केन्द्रित हो जाना, सोचना कि मैं गलत हूं, कमजोर, कायर, बुद्धू, डरपोक हूं । फिर पत्र लिखा । तनाव कुछ कम हुआ । लू शुन की कहानी ‘साबुन’ पढ़ता हूं ।
3—4—1976
दूसरी बार अस्सी पर मेरे दुश्मनों द्वारा हमले की पूरी योजना । लेकिन मेरे दुश्मन काफ़ी कमजोर हैं । दिमागी तौर पर वे काफ़ी कमजोर हैं । वे मजे से असफल कर दिये जाते हैं । मैं, महेश्वर, प्रधान, टुन्ना, शेखर दुकान में चाय पीते हैं । सु बाहर बुलाता है । मैं उसे अन्दर बुलाता हूं । फिर आता है । वह निहायत झूठी बातें सुनाता है । बेसिर पैर की बातें । मैं दृढ़तापूर्वक उसके झूठ को चुनौती देता हूं । वह निःशब्द हो जाता है । वे सबके सब झूठे, घृणित, लण्ठ और षड़यन्त्रकारी हैं । वह लड़की षड़यन्त्रकारी है । चाहे किसी ने भी उसके साथ जो कुछ भी कार्रवाई की हो, मैंने न तो उसे कभी अपमानित करने की चेष्टा की,न ही कुछ कहा, लेकिन उसने बार बार मेरी नीयत पर घृणित शक के साथ अपमानजनक रुख अख्तियार किया । वह सही मायनों में एक झूठी, गद्दार, हरामी, जलील औरत हो गयी है । षड़यन्त्रकारियों के साथ मिल गयी है । यह उसका अन्तिम और सही मूल्यांकन है । इसके सिवा उसे और मूल्य देना अपने आपको अपमानित करना है । मैं उसके समूचे व्यक्तित्व से अपनी ईमानदारी, सहजता और (मूर्खता की हद तक बढ़ी हुई) भावुकता में निश्चय ही आगे बढ़ गया हूं ।
8—4—1976
सोया, बार बार नींद टूटी । गलत सपने देखे । अवसन्न हो गया हूं । वह औरत मुझे भीतर से तोड़ती चली जा रही है । स्वास्थ्य लगातार खराब हो रहा है । थीसिस का काम जरा भी नहीं खिसका । मैं अवसन्न हो रहा हूं ।
10—4—1976
आतंक—-प्यार—-आतंक—-अन्त । जीवन फिर शुरू हो जाता है । चीजें खत्म होती हैं फिर शुरू हो जाती हैं ।
11—4—1976
मेरा पूरा पतन हो गया है । यह मेरी आर्थिक परिस्थिति से अभिन्न रूप से जुड़ा है । मुझे पहले खाना जुटाने का काम करना चाहिए । यह सीख है । सारे अनुभव बताते हैं कि आदमी को दो जून पेट भरने का इन्तजाम करना चाहिए और बातें बाद में आती हैं । लेकिन मैं हवा में प्यार की सोचता रहा हूं । मैं हवा में तिरता सा रहा हूं । बिना देश और दुनिया की परिस्थितियों का विचार किए प्यार के बारे में बेहूदा कल्पनाएं करता रहा हूं । नतीजा कि मैं ही सब कुछ हूं । समाज के बिना एक व्यक्ति कुछ नहीं है । वह बोल नहीं सकता, वह मुस्कुरा नहीं सकता, वह सूंघ नहीं सकता, वह आदमी नहीं बन सकता । मुझे इसके लिए दण्डित किया जाना चाहिए कि एक घृणापूर्ण दम्भ के अलावा मेरे पास कुछ देने को नहीं रह गया है ।
सामाजिक चेतना सामाजिक संघर्षों में से उपजती है । व्यक्तिगत समस्याओं से घिरे रहने पर सामाजिक चेतना या सामाजिक महत्व की कोई चीज उत्पादित करना मुमकिन नहीं । व्यक्तिगत समस्याएं जहां तक सामाजिक हैं, सामाजिक समस्याओं के साथ ही हल हो सकती हैं । अतः व्यक्तिगत रूप से उन्हें हल करने के भ्रम का पर्दाफाश किया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपनी भूमिका स्पष्ट रूप से समझ सके और समाज का निर्णायक अंग बन सके ।
13—4—1976
कल रामजी भाई आये । विनोद जी का आपरेशन । महेश्वर से बातचीत फिर शुरू हुई । गिरीश आया (यों कहें कि टपका) पाण्डेय भी ।
आज फिर अजीब सी उदासी, जड़ता । चाय, सिगरेट, काम कुछ नहीं । थीसिस लिखो । इस बेहूदगी को करो ताकि बेहूदा लोग यह न समझें कि तुम बेहूदगी भी नहीं कर सकते थे ।
भारी मात्रा में साहित्यिक उत्पादन की जरूरत है । और कुछ न हो पा रहा है ।
षड़यन्त्रकारी मेरे पीछे पड़े हैं । मेरे खिलाफ़ बड़ी आसानी से षड़यन्त्र सफल हो सकते हैं । कारण कि मैंने अपनी कोई दीवार नहीं बनायी जहां से छुप कर बचाव और हमला कर सकूं । सचाइयों के सिवा मेरे पास कोई ताकत नहीं । तो क्या सिर्फ़ सच से अपनी हिफ़ाजत की जा सकती है ? हां, की जा सकती है अगर उसे समझ के साथ कारगर ढंग से उपयोग में लाया जाय । सच और मूर्खता में सम्बन्ध नहीं हो सकता । मूर्खतापूर्ण सच सामाजिक रूप से हानिकारक व्यंग्य हो जाता है । सच, साहस और समझ तीनों मिलकर ही एक दूसरे को मजबूत करते हैं और स्वयं पुरअसर होते हैं । सत्य नपुंसक होने पर झूठ से भी गन्दा लगता है । सत्य को बल दो, साहस करो ताकि झूठ को घुटने टेक देना पड़े । अगर सच के लिए लड़ना है तो तलवार की धार पर चलना सीखना पड़ेगा ।
डोल रहे हैं चांद सितारे
धरती डोल रही है
शासन डांवाडोल न होगा
रानी बोल रही है
बटीं रस्सियां जाल बुनाए
सागर पर फैलाए
लहरें और मछलियां सारी
होशियार हो जाएं
तूफ़ानों को रोक न पायी तो
विष घोल रही है
13—4—1976
आज शाम को Ass और dog लंका पर से गुजरते दिखे । Ass and dog. I felt almost heated with anger and shame. I feel myself one of the most wretched beings. But for what? For love. A hateful word, a word which signifies my degradation, insult, humiliation before a wretched woman of beautiful appearance. The woman who made me follow her second time and exposed me to the ghasty sounds and bloody theeth of hounds was point of my life. I felt as if I will not be able to continue if I do not get her company. I wanted to approach her very respectfully and she treated me as an insect so that the real insects of fraud forgery were transformed into respected men. The second time I got strangled in the conspiracy of that charming lady who played my love to kill me with the help of ass and dog. That lady of dogs and asses is so sweet that she can easily sell her on highest costs in the sweet and socially established markets of living skin.
I, a man of extraordinary foolishness and weekness for eye charm, have placed myself under such a humiliating position that I can not forgive myself on this time. I am unforgivable before me and before the exploited people of my country. I tried to break the barriers of claas on the basis of love. It only means that I tried to neglect the real questions being in the heart of the society.
I made a conspiratorial type of girl my judge. I gave her all powers to make last judgement upon me. And she judged. She judged me by the standards of her charming skin which she knew can not be undermined in the market. I took her as a human personality. And she was conspiracy of living skin in the market-place where all dogs and asses follow her with watery mouth and sparkling eyes. She saw that I neglected her most important aspect, her charming skin and on which she ever prided. And she threw me in the area of hounds and asses to be eaten. They have started eating. They came and see me and felt enjoyed that I have been so captivated by their supreme lady. The lady with sweet smiles and glazy eyes, the lady with murderous skills and conspiratorial plans, the lady whom I loved with whole existence, the lady who made the dogs capable of eating me. That grand lady of dogs and asses became my judge. A pure beast, a beast without any respect and attraction for human qualities like sincerity, simplicity etc. , a beast of lust and robust flesh, a beast eager of eating human flesh. That grand lady out of a beast or that pure beast out of a lady was made my judge with the help of my utter foolishness, and urge for a friendly company of a woman. I am defeated in a war with the hateful beasts like dogs and asses because I ‘loved’ (how ironical the word sounds in my ears!) a wretched beast of a woman playing love with me and conspiring to kill me. I am by chance saved, but I find no wayout of humiliation, torture and shame in which I have placed myself with the help of this conspiracy called love.
I loved a woman and I conspired against myself because I loved a conspirator woman. She is now instructing her dogs and asses who can fill my ears with the sounds of shame and degradation and who can bite me whenever they get chance.
14—4—1976
Last night slept a lot. Now feeling better. Miss Sinha has recovered her health. She was seen standing on the balcony by someone. It is good. I feel better because now there is no reason for feeling. Some persons feel always bad. They acquire a habit of such felings. Therefore, do not adjust themselves to different conditions. I am regaining my strength because I have released the violence perpetrated on me through different channels. And I must be ready to face it even it comes from any side. It does not matter. Enemy is enemy, whatsoever he (or she) may be. I must not care. I must be ready to retaliate properly. If I live under such conditions of life, I will be compelled to face violence. So, it does not matter where does it come from. The main thing is violence exercised on me from hateful beasts. I know, I can not be challenged in my sincerity. I mean that violence also must be opposed with sincerity.
Begin my pen,
Begin with the words of fire and pain
Begin my pen
Begin with loud laughter
The musical attack on the pickpocket’s soverign
Begin my pen,
Begin with the pulses beating
And thoughts bursting out of brain
Begin my pen,
With the arms raised and eyes open
Begin my pen
Begin to change the world
And to create fighters
Out of crushed women
And men
Begin my pen.
21—6—1976
महीनों बाद डायरी के पन्ने पलटे हैं । दिल्ली की ओर । अपर इण्डिया ट्रेन में । शे*, रा*शे*, मिश्रा, नन्दू, रमेश आदि कई मित्रों के बीच स्टेशन पर बहुत मैत्रीपूर्ण माहौल । मैं महीनों बाद हल्का महसूस कर रहा हूं । मानो एक जड़ हो गयी परिस्थिति से मुक्त हो गया हूं । दिल्ली पहुंचकर काम की तलाश में जुट जाना है, नये सिरे से पूरी ताकत के साथ जीने और संघर्ष करने की कोशिश करनी है । वह अपनी तमाम बेहूदा हरकतों के साथ ट्रेन में याद आ रही है । साफ़ साफ़ पता चल गया है कि मेरे लगातार अवसन्न रहने का कारण क्या था ? इस अद्भुत कमजोरी पर विजय हासिल करना मेरे लिए निहायत जरूरी है । वर्ना मैं इसी तरह फिर टूट जाऊंगा ।
_______
सुबह अपर इण्डिया में । 22—-6—76
रात में ठण्ढ और स्मृतियों की बाढ़ । जैसे चेतना गाढ़े दर्द की तरह बह रही हो । सुबह दर्द । उदासी । अपरिचित चेहरों के बीच । अलीगढ़ में चाय पी । 2*30 पैसे । दिल्ली में रोटियां सस्ती हो रही हैं और तुम लोग महंगा करते जा रहे हो ? चांदी वाले सेठ लेटे हैं । बगल के सेठ बच्चे जासूसी उपन्यास पढ़ते हैं । रात में जो औरत अपने पति के स्टेशन पर छूट जाने के डर से रो रही थी, पति और बच्चे के साथ खुश है । वह बिल्कुल निश्चिन्त और सुरक्षित है ।
24—6—-1976
दिल्ली । गालिबो मीर की दिल्ली, ताज ओ तख्त की दिल्ली, हिन्दुस्तान की राजधानी दिल्ली । परसों से यहां हूं । कोई काम नहीं । विभास के मैत्रीपूर्ण व्यवहार से आश्वस्त हूं । बीच बीच में बनारस की दुर्घटनाएं याद आती हैं ।
_________
यह लम्बी यात्रा है-
जंगलों, पहाड़ों, खाइयों और
सुरंगों से होकर
तुम आगे बढ़ते जाना
पीछे मत देखना
जहां तक जा चुके हो- उसके
पीछे थकने के बाद
खूबसूरत फूलों की घाटियां
दिखाई पड़ेंगी और तुम
पत्थर हो जाओगे ।
मां ने नन्हे बेटे को
हिदायत दी सिर पर प्यार से
हाथ रखते हुए ।
बन्द करो कहानियां
ओह ! मैंने कभी कल्पना भी
न की थी ।
रोशनी आंखों में चुभ रही है
बत्तियां बुझा दो ।
हालत यहां तक पहुंच चुकी है
तुम रोशनी से डरने लगे हो
दूब की हरी पत्ती तुम्हे भद्दा मजाक
लगती है
कहां तो हम एक साथ हो रहे थे
हमने सिपाहियों की एक
टुकड़ी बना ली थी
उत्साह में ऊभ चूभ होते हुए
आवाज बुलन्द की थी-
अब आदमी का शोषण
आदमी नहीं करेगा ।
हालत यहां तक पहुंच चुकी है
कि तुम्हे कुछ शब्दों से चिढ़
हो रही है- जैसे शोषण,
गोया बार बार दोहराने से
इनका अर्थ खतम हो चुका हो
तुमने हथियार रख दिया है
सोचते हो कि तुम्हारा हारा हुआ
युद्ध अगली पीढ़ियां लड़ेंगी ।
हालत यहां तक पहुंच चुकी है-
भेड़ियों का हमला और तेज हो चुका है
गांव गांव से बच्चों को
रातो रात उठा लिया जाता है
खून के साथ वे दिल और दिमाग
भी चाट रहे हैं ।
जंगल- व्यवस्था के भीतर
आदमी की तरह बोलने
चलने और हाथ उठाने पर
पाबन्दी लगा दी गयी है
अब आगे से रेंग कर चलना होगा
लूट की जुबान
शहद घोलकर बोलनी होगी
इजाजत है तो सिर्फ़ यह कि
हाथों से अपने साथियों का
गला घोंट दो ।
वह नन्हा सा लड़का जंगलों
पहाड़ों, घाटियों, सुरंगों से
होकर आगे बढ़ता है ।
उसके हाथ में एक तलवार है
और निगाहों में बदले की आग ।
उसने ठोकरें खायीं
रोटियों के बजाय
उसने देखी है-
फ़रेब पर लिपटी हुई खूबसूरत
रंगों की चमक
वह तुम्हे भी आवाज देता है-
आओ,
एक एक कर साथियो,
मेरे पास आओ,
अभी हमें बहुत दूर जाना है
सफ़र लम्बा है
मगर आदमी के लिए
मुश्किल नहीं है
मेरे साथ आओ,
साथियो,
एक एक इन्च जमीन के लिए
हमें हजारों साल लड़ना पड़ा है
सम्मान की एक रोटी
हमारे लिए
मौत के बाद का स्वप्न बनी
रही है
हमारे सिरों पर
आकाश के सिवा
दूसरी छत तलवार की होती है
आओ, मेरे साथ आओ
साथियों,
मैं पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती हुई
भूख और अपमान
का भविष्य हूं
तुमको कहानी बुरी लगती है
और तुम्हे उसका पात्र होना
स्वीकार नहीं ।
लेकिन तुम कहां खड़े हो ?
तुम्हारे पास इसका जवाब है ?
एक अर्से से मैं बोलता रहा हूं
खून और आग को
निचोड़ कर मैंने शब्दों में रख दिया
सोचता था-
मैं कहूंगा- ‘क्रान्ति’
और तूफ़ान आ जायेगा
महल ढहने लगेंगे
तमाम जन्जीरें चरमरा कर
टूट जायेंगी
और हम मुक्त होकर खुशी से
नाच उठेंगे ।
एक मात्र मन्जिल थी-
आजादी
सोते और जागते हुए
मेरे होठो पर थरथराता था
एक शब्द- अजादी
मगर क्या हुआ ?
धीरे धीरे हम टूटते चले गये
हमने एक दूसरे पर अविश्वास
करना सीख लिया
अब वे शब्द हमारी छातियों
पर पत्थरों की तरह
पड़े हुए हैं ।
क्या हुआ ?
कितने लोगों ने सोचने
की दिशा बदल दी
कइयों ने पीछे लौटना ही
वाजिब समझा
और एक हमसफ़र
ने कान में
फुसफुसा कर कहा था-
हम लोग गलत थे
फिर से सोचना ।
उस लड़के का क्या हुआ ?
वह अब भी बढ़ता है जंगलों
पहाड़ों, खाइयों से होकर,
एक हाथ में तलवार
और निगाहों में बदले की आग
उसको शुरू में यह भी पता न था
दुश्मन कौन है ? कहां है ?
उसकी जमीन, उसका सुख
उसकी मेहनत, उसका फल
कौन लूट रहा है
उसके स्वप्न कहां गिरवी रखे
गये हैं
कहां कैद हैं उसकी उम्मीदें ।
कल तक उसे यह भी पता न
था । उसने एक राक्षस का
नाम सुना था और बढ़ता
रहा था आगे और आगे
अब हालात बदल चुके हैं-
वह जानता है-
राक्षस का एक सही नाम
जमींदार है, दूसरा नाम है
दलाल पूंजीपति तीसरा
नाम साम्राज्यवादी
और वे समाजवाद या
जनतन्त्र की आड़ में
हमला कर रहे हैं ।
वह दुश्मन को पहचानता
है जो सफलता की ओर
पहला बड़ा कदम है ।
तुम शब्दों के जादू से
बंधे रहे
‘क्रान्ति’ एक लम्बी लड़ाई
जो तुम्हारे लिए
जादू थी
तुमने ठोकरें खायी नहीं
भरभरा कर गिर पड़े थे ।
तुम्हे जमीन सख्त लगने
लगी । दुश्मन की
परछाइयां तुम्हारे सपने
भी रौंदने लगीं
अब तुम सोचते हो-
आने वाली पीढ़ियां
लड़ेंगी-
आने वाली पीढ़ियां
जरूर लड़ेंगी
लेकिन मौजूदा लड़ाई को
टाला नहीं जा सकता ।
जंगलों में या अंधेरी
कोठरियों में, सीलन भरे
तहखानों में तुम्हारी पहले से
ज्यादा जरूरत है
एक भी पैर जख्मी होता
है तुम्हारी अंगुलियां
जरूरी हो जाती हैं
शब्द जादू नहीं हैं
मगर अभियान के
लिए सैनिक गीत
मांगते हैं
सोचने का साहस करो
साहस के साथ लड़ो
अभी तो लड़ाई शुरू हुई है
अगली पीढ़ियां लड़ेंगी
मगर उन्हे कौन माफ़ करेगा
जिन्होने दुश्मन के सामने
घुटने टेक दिये ?
वह नन्हा मुन्ना आगे
बढ़ता है हाथ में तलवार
और निगाहों में बदले की
आग
सुनो, वह तुम्हे भी
पुकार रहा है ।
________
भारी बूट, चमकते कपड़े,
सिर पर टोप लगाये
सरकस के हाथी पर बैठे
जब दो बौने आये
मची खलबली दर्शकगण में-
यह भी खूब तमाशा
हाथी नाच रहा है कत्थक
बौने बजा रहे हैं तासा-
ढिम ढिम ढिम ढिम
तड़ तड़ ढिम ढिम
सुनो भाइयो,
बहनो, सुन लो
अद्भुत है यह हाथी
हाथी ने आंखें मटकायीं
ये हैं मेरे साथी ।

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