अविकसित देशों की सांस्कृतिक समस्याएँ
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
[शीमा माजीद द्वारा संपादित फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के चुनिन्दा अंग्रेजी लेखों का संग्रह 'कल्चर एंड आइडेंटिटी: सिलेक्टेड इंग्लिश राइटिंग्स ऑफ़ फैज़' (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस,2005) अपनी तरह का पहला संकलन है. इस संकलन में फ़ैज़ के संस्कृति,कला, साहित्य,सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेख इसी शीर्षक के पांच खण्डों में विभाजित है. इसके अलावा एक और 'आत्म-कथ्यात्मक' खंड है, जिसमें प्रमुख है फ़ैज़ द्वारा 7 मार्च 1984 (अपने इंतकाल से महज़ आठ महीने पहले) को इस्लामाबाद में एशिया स्टडी ग्रुप के सामने कही गई बातों की संपादित ट्रांसक्रिप्ट. पुस्तक की भूमिका पाकिस्तान में उर्दू साहित्य के मशहूर आलोचक मुहम्मद रज़ा काज़िमी ने लिखी है. शायरी के अलावा फ़ैज़ साहब ने उर्दू और अंग्रेजी दोनों भाषाओँ में साहित्यिक आलोचना और संस्कृति के बारे में विपुल लेखन किया है. साहित्य की प्रगतिशील धारा के प्रति उनका जगजाहिर झुकाव इस संकलन के कई लेखों में झलकता है. इस संकलन में शामिल अमीर ख़ुसरो, ग़ालिब, तोल्स्तोय, इक़बाल और सादिकैन जैसी हस्तियों पर केन्द्रित उनके लेख उनकी 'व्यावहारिक आलोचना' (एप्लाइड क्रिटिसिज्म) की मिसाल हैं. यह संकलन केवल फ़ैज़ साहब के साहित्यिक रुझानों पर ही रौशनी नहीं डालता बल्कि यह पाकिस्तान और समूचे दक्षिण एशिया की संस्कृति और विचार की बेहद साफदिल और मौलिक व्याख्या के तौर पर भी महत्त्वपूर्ण है. इसी पुस्तक के एक लेख 'कल्चरल प्रौब्लम्स इन अंडरडेवलप्ड कंट्रीज' का हिन्दी अनुवाद नया पथ के फ़ैज़ विशेषांक से साभार प्रस्तुत है - भारत भूषण तिवारी]
इंसानी समाजों में संस्कृति के दो मुख्य पहलू होते हैं; एक बाहरी,औपचारिक और दूसरा आंतरिक,वैचारिक. संस्कृति के बाह्य स्वरूप,जैसे सामाजिक और कला-सम्बन्धी,संस्कृति के आंतरिक वैचारिक पहलू की संगठित अभिव्यक्ति मात्र होते है और दोनों ही किसी भी सामाजिक संरचना के स्वाभाविक घटक होते हैं.जब यह संरचना परिवर्तित होती है या बदलती है तब वे भी परिवर्तित होते हैं या बदलते हैं और इस जैविक कड़ी के कारण वे अपने मूल जनक जीव में भी ऐसे बदलाव लाने में असर रखते हैं या उसमें सहायता कर सकते हैं. इसीलिए सांस्कृतिक समस्याओं का अध्ययन या उन्हें समझना सामाजिक समस्याओं अर्थात राजनीतिक और आर्थिक संबंधों की समस्याओं से पृथक करके नहीं किया जा सकता. इसलिए अविकसित देशों की सांस्कृतिक समस्याओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में मतलब सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में में रखकर समझना और सुलझाना होगा.
फिर अविकसित देशों की मूलभूत सांस्कृतिक समस्याएँ क्या हैं? उनके उद्गम क्या हैं और उनके समाधान के रास्ते में कौन से अवरोध हैं?
मोटे तौर पर तो यह समस्याएँ मुख्यतः कुंठित विकास की समस्याएँ हैं; वे मुख्यतः लम्बे समय के साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी शासन और पिछड़ी, कालबाह्य सामाजिक संरचना के अवशेषों से उपजी हुई हैं. इस बात का और अधिक विस्तार से वर्णन करना ज़रूरी नहीं. सोलहवीं और उन्नीसवीं सदी के बीच एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका के देश यूरोपीय साम्राज्यवाद से ग्रस्त हुए. उनमें से कुछ अच्छे-खासे विकसित सामंती समाज थे जिनमें विकसित सामंती संस्कृति की पुरातन परम्पराएँ प्रचलित थीं. औरों को अब भी प्रारम्भिक ग्रामीण कबीलाईवाद से परे जाकर विकास करना था. राजनीतिक पराधीनता के दौरान उन देशों का सामाजिक और सांस्कृतिक विकास जम सा गया और यह राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त होने तक जमा ही रहा. तकनीकी और बौद्धिक श्रेष्ठता के बावजूद इन प्राचीन सामंतवादी समाजों की संस्कृति एक छोटे से सुविधासंपन्न वर्ग तक ही सीमित थी और उसका अंतर्मिश्रण जन साधारण की समानान्तर सीधी सहज लोक संस्कृति से कदाचित ही होता. अपनी बालसुलभ सुन्दरता के बावजूद आदिम कबीलाई संस्कृति में बौद्धिक तत्त्व कम ही था. एक ही वतन में पास पास रहने वाले कबीलाई और सामंतवादी समाज दोनों ही अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ लगातार कबीलाई, नस्ली और धार्मिक या दीगर झगड़ों में लगे रहते. अलग अलग कबीलाई या राष्ट्रीय समूहों के बीच का लम्बवत विभाजन (vertical division), और एक ही कबीलाई या राष्ट्रीय समूह के अंतर्गत विविध वर्गों के बीच का क्षैतिज विभाजन (horizontal division), इस दोहरे विखंडन को उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी प्रभुत्व से और बल मिला. यही वह सामाजिक और सांस्कृतिक मूलभूत ज़मीनी संरचना है जो नवस्वाधीन देशों को अपने भूतपूर्व मालिकों से विरासत में मिली है.
एक बुनियादी सांस्कृतिक समस्या जो इनमें से बहुत से देशों के आगे मुँह बाए खड़ी है, वह है सांस्कृतिक एकीकरण की समस्या. लम्बवत एकीकरण जिसका अर्थ है विविध राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रतिरूपों को साझा वैचारिक और राष्ट्रीय आधार प्रदान करना और क्षैतिज एकीकरण जिसका अर्थ है अपने समूचे जन समूह को एक से सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर तक ऊपर उठाना और शिक्षित करना. इसका मतलब यह कि उपनिवेशवाद से आज़ादी तक के गुणात्मक राजनीतिक परिवर्तन के पीछे-पीछे वैसा ही गुणात्मक परिवर्तन उस सामाजिक संरचना में होना चाहिए जिसे उपनिवेशवाद अपने पीछे छोड़ गया है.
एशियाई, अफ्रीकी और लातिन अमरीकी देशों पर जमाया गया साम्राज्यवादी प्रभुत्व विशुद्ध राजनीतिक आधिपत्य की निष्क्रिय प्रक्रिया मात्र नहीं था और वह ऐसा हो भी नहीं सकता था. इसे सामाजिक और सांस्कृतिक वंचन (deprivation) की क्रियाशील प्रक्रिया ही होना था और ऐसा था भी. पुराने सामंती या प्राक-सामंती समाजों में कलाओं, कौशल्य,प्रथाओं, रीतियों,प्रतिष्ठा, मानवीय मूल्यों और बौद्धिक प्रबोधन के माध्यम से जो कुछ भी अच्छा, प्रगतिशील और अग्रगामी था उसे साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने कमज़ोर करने और नष्ट करने की कोशिश की. और अज्ञान, अंधविश्वास,जीहुजूरी और वर्ग शोषण अर्थात जो कुछ भी उनमें बुरा, प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी था उसे बचाए और बनाए रखने की कोशिश की. इसलिए साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने नवस्वाधीन देशों को वह सामाजिक संरचना नहीं लौटाई जो उसे शुरुआत में मिली थी बल्कि उस संरचना के विकृत और खस्सी कर दिए गए अवशेष उन्हें प्राप्त हुए. और साम्राज्यवादी प्रभुत्व ने भाषा, प्रथा, रीतियों, कला की विधाओं और वैचारिक मूल्यों के माध्यम से इन अवशेषों पर अपने पूंजीवादी सांस्कृतिक प्रतिरूपों की घटिया,बनावटी, सेकण्ड-हैण्ड नकलें अध्यारोपित कीं.
अविकसित देशों के सामने इस वजह से बहुत सी सांस्कृतिक समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं. पहली समस्या है अपनी विध्वस्त राष्ट्रीय संस्कृतियों के मलबे से उन तत्वों को बचा कर निकालने की जो उनकी राष्ट्रीय पहचान का मूलाधार है, जिनका अधिक विकसित सामाजिक संरचनाओं की आवश्यकताओं के अनुसार समायोजन और अनुकूलन किया जा सके, और जो प्रगतिशील सामाजिक मूल्यों और प्रवृत्तियों को मज़बूत बनाने और उन्हें बढ़ावा देने में मदद करे. दूसरी समस्या है उन तत्वों को नकारने और तजने की जो पिछड़ी और पुरातन सामाजिक संरचना का मूलाधार हैं, जो या तो सामाजिक संबंधों की और विकसित व्यवस्था से असंगत हैं या उसके विरुद्ध हैं, और जो अधिक विवेक बुद्धिपूर्ण और मानवीय मूल्यों और प्रवृत्तियों की प्रगति में बाधा बनते हैं. तीसरी समस्या है, आयातित विदेशी और पश्चिमी संस्कृतियों से उन तत्वों को स्वीकार और आत्मसात करने की जो राष्ट्रीय संस्कृति को उच्चतर तकनीकी, सौन्दर्यशास्त्रीय और वैज्ञानिक मानकों तक ले जाने में सहायक हों, और चौथी समस्या है उन तत्वों का परित्याग करने की जो अधःपतन, अवनति और सामाजिक प्रतिक्रिया को सोद्देश्य बढ़ावा देने का काम करते हैं.
तो ये सभी समस्याएँ नवीन सांस्कृतिक अनुकूलन, सम्मिलन और मुक्ति की हैं. और इन समस्याओं का समाधान आमूल सामाजिक (अर्थात राजनीतिक, आर्थिक और वैचारिक) पुनर्विन्यास के बिना केवल सांस्कृतिक माध्यम से नहीं हो सकता.
इन सभी बातों के अलावा, अविकसित देशों में राजनीतिक स्वतंत्रता के आने से कुछ नई समस्याएँ भी आई हैं. पहली समस्या है उग्र-राष्ट्रवादी पुनरुत्थानवाद, और दूसरी है नव-साम्राज्यवादी सांस्कृतिक पैठ की समस्या.
इन देशों के प्रतिक्रियावादी सामाजिक हिस्से; पूंजीवादी, सामंती,प्राक-सामंती और उनके अभिज्ञ और अनभिज्ञ मित्रगण ज़ोर देते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा के अच्छे और मूल्यवान तत्वों का ही पुनःप्रवर्तन और पुनरुज्जीवन नहीं किया जाना चाहिए बल्कि बुरे और बेकार मूल्यों का भी पुनःप्रवर्तन और स्थायीकरण किया जाना चाहिए. आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति के बुरे और बेकार तत्वों का ही नहीं बल्कि उपयोगी और प्रगतिशील तत्वों का भी अस्वीकार और परित्याग किया जाना चाहिए. इस प्रवृत्ति के कारण एशियाई और अफ्रीकी देशों में कई आन्दोलन उभरे हैं. इन सारे आन्दोलनों के उद्देश्य मुख्यतः राजनीतिक हैं, अर्थात बुद्धिसम्पन्न सामाजिक जागरूकता के उभार में बाधा डालना और इस तरह शोषक वर्गों के हितों और विशेषाधिकारों की पुष्टि करना.
उसी समय नव-उपनिवेशवादी शक्तियाँ, मुख्यतः सं.रा.अमरीका, अपराध,हिंसा,सिनिसिज्म,विकार और लम्पटपन का महिमामंडन और गुणगान करने वाली दूषित फिल्मों, पुस्तकों, पत्रिकाओं, संगीत, नृत्यों, फैशनों के रूप में सांस्कृतिक कचरे,या ठीक-ठीक कहें तो असांस्कृतिक कचरे के आप्लावन से प्रत्येक अविकसित देश के समक्ष खड़े सांस्कृतिक शून्य को भरने की कोशिश कर रही हैं. ये सभी निर्यात अनिवार्यतः अमरीकी सहायता के माध्यम से होने वाले वित्तीय और माल के निर्यात के साथ साथ आते हैं और उनका उद्धेश्य भी मुख्यतः राजनीतिक है अर्थात अविकसित देशों में राष्ट्रीय और सांस्कृतिक जागरूकता को बढ़ने से रोकना और इस तरह उनके राजनीतिक और बौद्धिक परावलंबन का स्थायीकरण करना. इसलिए इन दोनों समस्याओं का समाधान भी मुख्यतः राजनीतिक है अर्थात देशज और विदेशी प्रतिक्रियावादी प्रभावों की जगह पर प्रगतिशील प्रभावों को स्थानापन्न करना. और इस काम में समाज के अधिक प्रबुद्ध और जागरूक हलकों जैसे लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों की प्रमुख भूमिका होगी. संक्षेप में, कुंठित विकास, आर्थिक विषमता, आंतरिक विसंगतियाँ, नकलचीपन आदि अविकसित देशों की प्रमुख सांस्कृतिक समस्याएँ मुख्यतः सामाजिक समस्याएँ हैं; वे एक पिछड़ी हुई सामाजिक संरचना के संगठन, मूल्यों और प्रथाओं से जुड़ी हुई समस्याएँ हैं. इन समस्याओं का प्रभावी समाधान तभी होगा जब राष्ट्रीय मुक्ति के लिए हुई राजनीतिक क्रान्ति के पश्चात राष्ट्रीय स्वाधीनता को पूर्ण करने के लिए सामाजिक क्रान्ति भी होगी.
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प्रगतिशील गीत संगितलाई राज्यले सम्मान गरेन
२०७१ जेष्ठ १३ गते , मंगलवार ०१:४४:५३ मा प्रकाशित
गाउँ गाउँबाट उठ वस्ती वस्तीबाट उठ
यो देशको मुहार फेर्नलाई उठ
जोसीलो गीतका माथिका हरफ गाउँदै प्रगतिशील सांस्कृतिक रुपान्तरणको लागि सामाजिक अभियानको अगुवाई गरिरहेको ‘राल्फा’ समूहको प्रेरणाबाट ४२ वर्ष अघि सांस्कृतिक सचेतनाको आन्दोलनमा लागेका माधव प्रधान आज पर्यन्त सांस्कृतिक क्षेत्रमा उत्तिकै लगनशील र क्रियाशील छन् । रामेश, मञ्जुल, अरिन रनिनुले राल्फा आन्दोलन हाँकी रहेका थिए । विशेष गरेर उनीहरु हातमा सांस्कृतिक औजार बोकेर परिवर्तनको प्रेरणा जगाउँदै गाउँदै र नाँच्दै हिड्ने शैलीले उनलाई प्रभावित बनायो । सानैदेखि विभिन्न हिसावले सांस्कृतिक क्षेत्रमा लाग्ने रुची पैदा भएका उनी टोल समूदायमा कुनै कार्यक्रम हुँदा पुगी हाल्थे ।
२०२६/२७ साल जतिवेला मुलुकमा पञ्चायती कालो रात थियो । समूहमा भेला भएर आफ्ना विचार त राख्न सकिँदैन थियो । अझ माथि उठेर प्रगतिशील सास्कृतिक आन्दोलनको नेतृत्व गर्न कहाँ सजिलो थियो र ! तै पनि खाने मुखलाई जुँगाले कहाँ छेक्दो रहेनछ !
उनी पनि त्यस्तै समूह मार्फत रुपान्तरणको आन्दोलनमा होमिए । हातको कसिलो मुठि भएका तर साथमा केही नभएकाहरु सांस्कृतिक औजार बोकेर तेजिलो, पेचिलो आवाज र सांगितिक चेतनाको विम्व लिएर प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलनको मैदानमा होमिए ।
सहरका चोक डवली मात्र होइन,
गाउँका कुना कन्दरा र दुर दराजहरुका भोका नांगा तथा आवाज विहिनहरुको आवाज बन्दै परिवर्तनको चाहनालाई गीत संगित मार्फत मुखरित गरिरहे । आन्दोलनको याम थियो । व्यवस्था परिवर्तनका लागि नागरिकहरु संगठित हुन खोजिरहेका थिए । दलहरु प्रतिवन्धित थिए । सहजथिएन गीत गाउन । राज्यसत्ताको बन्दुकको नाल मुन्तिर बसेर उनीहरुकै विरुद्ध आवाज निकाल्नु र सचेतनाको कसिलो मुठी कस्नु कहाँ सम्भव थियो र !
यस्तैमा उनीहरुले गाए,
चरण विग्रियो घँगारु काँडाले
गाउँ विग्रियो गाउँमारा साँडाले
झापा विद्रोहको सामुद्रिक ज्वारभाटासँगै पूर्व बलेको थियो। आगोको राफसरी तातेको पूर्वको कम्यूनिष्ट समुहले नेपालको कम्यूनिष्ट आन्देलनमै तरंग ल्याएको थियो । विद्रोहको आगोमा बर्तन थप्न उनी पनि काठमाडौँबाट धरानहुँदै ताप्लेजुङ हानिए र झापा विद्रोहलाई मलजल गरे सांस्कृतिक अभियान मार्फत नै ।
सामन्तलाई नगिँडे सैनिकसँग नभिडे
आउँदैन है जनवाद छाती ठोकेर
शोषक सामन्त र वुर्जुवाहरुको विरुद्ध नागरिकहरुलाई संगठित गर्दै उनले यसरी नै आफूलाई आन्दोलनमा समाहित गरी रहे । मनमा सपना थियो । अहिले राज्यसत्तामा पुगेका थुप्रै अनुहारहरु हिजो उनीहरुसँगै समाजिक आन्दोलनमा चप्पल फटाएकाहरु छन् । त्यतीवेलाको आन्दोलनमा सांस्कृतिक प्रस्तुतिको विशेष महत्व हुन्थ्यो । उनलाईसम्झना छ । २०४६ सालकोपरिवर्तनको आन्दोलनमा जनसहभागिता नजुटेर आन्दोलन कमजोर बनेको बेला तिनै प्रगतिशील कलाकारहरुले आन्दोलनमा उभार ल्याइदिएका थिए । परिणामतः आन्दोलन सफल भयो । मुलुकमा परिवर्तनको छिटाहरु देखा पर्न थाले ।हिजोका आन्दोलनका सारथीहरु मात्र होइनन् सहयात्रीहरु नै शासनसत्ताको बागडोर सम्हाल्न पुगे । विडम्वना तिनै कलाकार जसले आन्दोलनमा उर्जा खर्चिएर जनलहर ल्याएका थिए । परिवर्तनको पंक्तिमा लामबद्ध हुन प्रेरणा जगाएका थिए ।उनीहरु नै राज्यको वेवास्ताको शिकार भए । आन्दोलन पछाडि बनेको सरकारले उनीहरुको गीत संगीतको मर्म विर्सियो ।
आज नेपाली प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन बुर्जुवाहरुको थिचोमिचोमा मात्र होइन पश्चिमाहरुको अतिक्रमणमा नै परिसकेको छ । तर हिजो आन्दोलनको समयमा मञ्चमा गीत गाउन प्रयोग गरिएका र सांस्कृतिक चेतनाका लागि गाउँ गाउँ रवस्ती वस्ती हिँडाइएका कलाकारहरु आज दयनीय जीवन बाँचिरहेका छन् । भोक र शोक सँग लडिरहेका छन् । राज्यबाट पाउनुपर्ने सामान्य सुविधा पनि उनीहरुले पाउन सकेका छैनन् ।
राज्यले सम्मान गर्न त सकेन तर प्रतिशील गीत संगित प्रति अपमान नगरिदिए हुन्थ्यो भन्ने उनको एकमात्र आग्रह छ । ग्ल्यामरस र भल्गर हुनथालेको आजको कला र संस्कृतिले उनलाई दुःखीत बनाएको छ । गीत संगित भनेको विशुद्धमनोरञ्जनका लागि मात्र होइन यसमा चेतना सन्निहित हुनपर्छ र रुपान्तरणको आवाज समेत बोल्नु पर्छ भन्ने उनको मान्यतामा आज धमिरा लागेको छ र सांस्कृतिक रुपान्तरणको आन्दोलन कुहिरो काग बनेको छ ।
कुनैपनि सञ्चारका माध्यमहरुले प्रगतिशील गीत संगितलाई नसमेटिदिएको देख्दा उनी दुःखीत हुन्छन् । जतिसुकै परिवर्तनको आन्दोलनको अगुवाई गरेता पनि,सामाजिक परिवर्तनको विगुल फुकेता पनि, आवाजका माध्यमबाट गाउँ वस्तीका कुना देखि सहरकाचोक सम्मका मानिसहरुलाई रुपान्तरणको पक्षमा लामबद्धबनाएता पनि साँचो अर्थमा मुलुक विकासको गतिमा अगाडि बढ्न नसकेको उनको ठम्याई छ ।
त्यसैले उनी अझै परिवर्तनको आन्दोलनको औचित्य नसकिएको र सांस्कृतिक सचेतनाका लागि त्यतिकै क्रियाशिल हुनुपर्ने बताउँछन् । साथै प्रगतिशील कलाकारहरु कुनै पार्टी र दल विशेषको मात्र नहुने हुँदा राज्यले उनीहरुको उचितव्यवस्थापन गर्नु पर्ने उनको तर्क छ ।
प्रगतिशील कलाकारहरु फुटेर होइन जुटेर मात्रै राज्यको सामाजिक सांस्कृतिक रुपान्तरण हुन सक्ने मान्यता बोक्ने प्रधान सांस्कृतिक सचेतनाका लागि धेरै गर्न बाँकी रहेको बताउँछन् ।
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दशैं धार्मिक कि सांस्कृतिक
इन्द्र नारथुङे
-हिन्दुहरुको महान पर्व दशैं
-आर्यहरुको महान् पर्व दशैं
-नेपालीहरुको महान् पर्व दशैं ।
दशैं कस्को हो भन्ने विषयमा स्पष्ट पार्न ब्यक्ति वा सार्वजनिक साचार माध्यमहरुले माथि उल्लेखित शब्दहरु खर्चने गर्दछ । यी तीन मध्ये पनि प्रथम र दोश्रो भनाई अधिक प्रयोग हुन्छ । तल्लो भनाईको प्रयोग कमै मात्र गरिन्छ ।
-देवताहरुको कल्याण गर्न दानवराज शुम्भ निशुम्भलाई दुर्गा भवानीले बध गरेको खुसियालीमा दशैं मनाउन थालिएको हो ।
-तेत्रायुगमा अयोध्याका राजा रामले लंकाका दुष्टराजा रावणलाई मारेर सम्पूर्ण मानव जगतको कल्याण गरेको खुसियालीमा दशैं मनाउन थालिएको हो ।
-अनार्य माथि आर्यहरुको विजयको खुसियालीमा दशैं मनाउन थालिएको हो ।
यी माथिका तीन भनाईहरु दशैंको उत्पत्ति कसरी भयो भन्नेसँग सम्बन्धित छ। दशैं हिन्दुहरुको हो भन्ने विषयमा प्रष्ट हुन माथिका भनाईहरु नै काफी छ । तर दशैंको उत्पत्तिको बारेमा भने माथिका भनाईहरु आपसमा बिरोधाभाषपूर्ण छन् । दानवराजशुम्भ-निशुम्भलाई दुर्गा भवानीले बध गरेको कथालाई मात्र आधार बनाएर हेर्दा दशैंको समग्र महिमा खुल्दैन । दुर्गापूजा दशैंको महत्वपूर्ण पक्ष हो तर दुर्गापूजा नै समग्र दशैं होईन । दुर्गापूजा दशैंको एउटा एकाई मात्र हो । लंकाका राजा रावण माथिअयोध्याका राजा रामको विजयलाई दशैंसँग जोड्ने हो भने त दशैं चैत्र शुक्ल पूर्णिमामा पर्न जान्छ । चैत्र शुक्ल पूर्णिमामा चैते दशैंको नाममा रामनवमी मनाउदैं आईएको सबैमा बिदितै छ । रावण माथि रामको विजय भएको खुसियालीमा दशैं मनाउनथालिएको हो भन्ने भनाई गलत देखिन्छ । तेश्रो भनाई झन् बिरोधाभाषपूर्ण छ । पौराणिक कथाहरुमा बर्णन गरिएको शुम्भ-निशुम्भ, दुर्गा भवानी, राम र रावण आर्यहरु हुन् । अनार्य माथि आर्यको विजयको खुसियालीमा कसरी दशैं मनाउन थालियोभन्ने भनाई पौराणिक कथाहरुले पुष्टी गर्दैन । तर हामी नेपालीहरुले मनाउने दशैं अन्य देशका हिन्दुहरुले मनाउने दुर्गापूजा भन्दा धेरै फरक भएको कारण के भन्न सकिन्छ भने भारत हुँदै नेपाल प्रवेश गरेका आर्यहरुले नेपालमा शासन गरिरहेकाअनार्यहरुलाई युद्धमा जितेर राज्य कब्जा गरेको खुसियालीमा दुर्गापूजाको छेकलाई आधार बनाई केही मौलिक संस्कृति मिसाएर दशैं मनाईएको हुन सक्ने आधार भने छ । नेपाल बाहेक अन्य देशका हिन्दुहरुले दशैंको समयमा दुर्गापूजा गर्ने र कालरात्रीमनाउने गर्दछन् तर नेपालमा यी दुवैको साथमा जमरा राख्ने, मार हान्ने र टीका लगाउने गरिन्छ । अन्य देशका हिन्दुहरु माझ दुर्गा पूजाको महिमा बढी देखिन्छ भने नेपालमा टीका लगाउनलाई बढी महत्वपूर्ण मानिन्छ । त्यसैले नेपालको सन्दर्भमाआर्यहरुबाट अनार्य माथिको विजयको खुसियालीमा दशैं मनाउन थालिएको हो भन्ने भनाईले निकट सम्बन्ध राख्छ ।
दशैंको उत्पति जसरी भए पनि वा दशैं जस्को चाड भएपनि नेपालको सन्दर्भमा यो सांस्कृतिक महत्वको चाड हो । तर यसलाई धर्मको अलंकार भिराएर सिमित घेरा भित्र राख्ने प्रयत्नले दशैंको महत्व नेपालमा बिस्तारै घट्दै गईरहेको छ । हुन त धर्मआफैमा एउटा संस्कार हो यो परिवर्तनशिल छ र परिवर्तन गर्न सकिन्छ । तर पनि धर्मलाई मान्छे वा राज्यले विशेष प्राथमिकता दिएको कारण यो संस्कार भन्दा अलग्गै देखिने गर्दछ । धर्म सबैको एउटै हुन्छ संस्कार मात्र भिन्न हो । दशैंलाई पनिधर्मसँग जोडिदिएको कारण यसको लोकपि्रयता खस्कदै गईरहेको छ । आर्यहरुद्वारा अनार्यहरु माथिको विजयको खुसियालीमा दशैं मनाउन थालिएको हो भन्ने भनाई सत्य नै भए पनि मान्छेमान्छे बिचको सहिष्णुतामा असर पुर्याउने यस्ता शब्दहरुलेअनार्यहरुमा दशैं प्रति आस्था घटाउन ठूलो काम गरिरहेको छ । अनार्यमाथि विजय गरेपछि त्यस्को खुसियालीमा दशैं मनाईयो टीका लाईयो वा मार हानियो होला तर त्यही कुरालाई आज दोहोर्याएर अरु संस्कार मान्ने मान्छेहरुलाई होच्याउनु एक्काईसौंसताब्दीको संस्कृति होईन । यदि यही कुरालाई प्राथमिता दिने हो भने नेपालका अनार्यहरुले हिजो आफ्नो गुमेको राज्यसत्ता र्फिता लिएर आर्यहरुलाई फेरी भारत तिरै लघार्न अन्याय ठर्हदैन ।
देशमा निरङ्कुश शासन ब्यवस्था रहिन्जेल लगभग सबै जाति, वर्ग वा समुदायका मान्छेहरुले दशैं मान्ने गर्दथे । तर त्यहाँ बाध्यता थियो भन्ने कुरा निरङ्कुश शासनको अन्त्य हुनसाथ धेरै जाति वा समुदायका मान्छेहरुले दशैं बहिस्कार गर्न थालेकोकुराले प्रष्ट पार्दछ । जतिबेला हिन्दुहरुको हातमा शासन सत्ता पुग्यो त्यसबेला आफ्नो संस्कार र संस्कृतिलाई अपनाउन अरु समुदायलाई बाध्य पारिएको हो भन्ने कुरा दशैं बहिस्कारले देखाउँछ । हिजोका दिनमा गैह्र आर्य समुदायका मान्छेहरुलाई दशैंमनाउन बाध्य पारिए पनि आज आएर दशैंबाट पूर्ण रुपले अलग हुन्छु भन्नु असम्भव नै छ । हाल गैह्र आर्यहरुले दशैं बहिस्कारको नाममा टीका मात्र बहिस्कार गरेका हुन् । खाने, नातानाला भेट्ने, मनोराजन गर्ने जस्ता दशैंका सामाजिक पक्ष यथावतनै छ । तर स्वयं आर्य समुदायका मान्छेहरु दशैंलाई धर्मसँग गाँसेर गैह्र आर्यहरुलाई दशैंको बिरुद्धमा उचाल्न प्रयाशरत छन् । सार्वजनिक साचार माध्यममा 'हिन्दु मात्रको महान पर्व दशैं' र 'अनार्य माथि आर्यहरुको विजय' भन्ने शब्दहरु प्रयोग गरेर दशैंकोलोकपि्रयता बढेको भ्रम पालेर बस्नु आर्यहरुको भुल हुँदै गईरहेको छ । कुनै पनि संस्कार वा संस्कृति एउटा समुदायमा मात्र सिमित गरिन्छ भने त्यो कालान्तरमा निश्चित लोप भएर जान्छ । सूचनाको साजालले विश्व साँघुरिएको बेला एउटा समुदायमामात्र सिमित रहने संस्कार र संस्कृतिहरु कति दिन जीवित रहन सक्छ र त्यसैले दशैंलाई धर्मको पाजाबाट मुक्त गरेर संस्कृतिको रुपमा संसारका सबै मानिसहरुले ग्रहण गर्न सक्ने बनाउनु पर्दछ । मार हान्ने जस्ता प्राणी िहंशाको संस्कारले दशैं जस्तोसांस्कृतिक सद्भाव राख्ने पर्वलाई कुरुप बनाएको छ । पशुको बली दिनु र त्यसमा मुछिएको रगतको टीको लाउनु भनेको मान्छेको राक्षसी प्रवृति हो भन्दा पनि फरक पर्दैन । दान दक्षिणाको होडबाजी, गरगहना र बहुमुल्य कपडाहरुको प्रर्दशनसर्बसाधरणहरुलाई दशैं प्रति वितृष्णा जगाउने कारक तत्व बनेका छन् । यस्ता संस्कृति भित्रका बिकृतिहरुलाई हटाउन सकेको खण्डमा दशैं प्रति देखिएको बितृष्णा निश्चित रुपमा कम हुने देखिन दशैं समग्रमा सबै मानव समुदायको लागि सांस्कृतिक महत्वको पर्व हो भन्दा झुटो ठहर्दैन । काम बिशेषले टाढा पुगेकाहरु दशैंमा घर फर्कनु नरनाता बिचमा भेटघाट हुनु भनेको मान्छेमान्छे बिचमा माया ममता र सद्भाव कायम हुनु हो । आफू भन्दाठूलाबडाहरुबाट टीकाको साथमा आर्शिवचन ग्रहण गर्नुले आफु भन्दा माथिकाहरु प्रति सम्मानभावको जन्म गराउँछ र सानाहरु प्रति ममता दर्शाउँछ । दशैंले एकआपस बिचको सत्रुता हटाई मान्छेलाई सहकार्यमा अग्रसर गराउँछ । जमरा राख्नु र लगाउनुभनेको कृषिसँग सम्बन्धित कुरो हो । यसलाई माटो परिक्षण वा अन्नबाली लगाउने नयाँ अभ्यासको रुपमा लिन सकिन्छ र यर्थातमा जमरा राख्नुको रहस्य पनि त्यही हो । पिङ लगाउनु खेल्नुले एकातिर मान्छेको कलालाई उजागर गर्दछ भने अर्कोतिरमानशिक र शारिरिकरुपमा स्वस्थ बनाउन मद्दत गर्दछ । त्यसैले दशैंलाई धर्मबाट अलग गरेर विशुद्ध साँस्कृतिक पर्वको रुपमा मनाउने हो भने कसैले स्विकार र बहिस्कार गर्नु पर्ने प्रश्नै छैन
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