अपसंस्कृति और मूल्यहीनता, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दबाव, उपभोक्तावादी समय के
आतंक और कथा-साहित्य की महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं के बन्द होते चले जाने के बावजूद
हिन्दी कहानी ने आधुनिक समय की कंकरीली ज़मीन पर अपना वजूद बनाए रखा है, यह
एक आशाजनक स्थिति है। रचे हुए शब्दों के प्रकाशन के लिए कहीं कोई आकर्षण, कोई
प्रेरणा नहीं हैं। कथा-साहित्य लाखों के सर्क्युलेशन वाली पत्रिकाओं से हटकर अखबारों
के रविवारीय संस्करणों और शुद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं के विचार-प्रधान लेखों के
कारण हाशिए पर चला गया है, इसके बावजूद हिन्दी में सशक्त कथा-साहित्य का सृजन
हो रहा है।
लेखन को पीढ़ियों में बाँधकर आँका जाना साहित्य के प्रति ज़्यादती है। लेखक की जवाबदेही अपने समकालीनों या अपनी पीढ़ी के प्रति नहीं, अपने समय के प्रति है। वह निरन्तर बदलते और आगे बढ़ते समय के साथ जुड़कर रचना करता है। लगातार चार दशकों से लेखन करते हुए वरिष्ठ कथाकार भीष्म साहनी या निर्मल वर्मा जब कहानियाँ लिखते हैं तो वे अपने चिर परिचित भाषागत लहजे के बावजूद अपने पुराने इज़्म को तोड़ते हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि जीवन के संश्लिष्ट होते चले जाने के साथ-साथ कथा रचना भी संश्लिष्ट हुई हैं।
सन पचास के बाद की कहानी शिल्प को स्तर पर प्रयोगात्मक होने के बावजूद भोगे हुए यथार्थ, संत्रास एवं द्वंद्वों की नितान्त वैयक्तिक अभिव्यक्ति थी, उसके बाद की पीढ़ी ने मोहभंग की प्रतीति के साथ राजनीतिक - सामाजिक सतर पर गहरे उथल-पुथल और भ्रष्टाचार का आकलन किया है -- इसी के अनुरूप कहानी का शिल्प भी प्रौढ़ हुआ है। इसके अतिरिक्त कहानी में उन स्त्री पात्रों का विद्रोह भी अधिक मुखर दिखाई देता है जे अब तक एक आदर्शवादी चौहद्दी में कैद था।
आधुनिक सामाजिक विसंगतियाँ और उनके विरोधाभास पहले से कहीं अधिक पैने हो गए हैं। एक ओर औरत अपनी सदियों पुरानी इमेज को तोड़कर लगभग विध्वंसक रूप में आगे आती दिखाई देती है तो दूसरी ओर मध्यम-वर्गीय कस्बाई स्त्री का पारंपरिक स्वरूप आज भी बदलाव से अछूता, सदियों पुरानी मान्यताओं को ढोने और समझौतों की सलीब उठाने पर मजबूर है। लेखक-लेखिकाओं की युवा पीढ़ी ने इस चुनौती को बखूबी स्वीकार किया है और मीडिया तथा समय के तमाम अवांछित दबावों के बावजूद कथा साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। कहानियों से अधिक कहानीकारों को रेखांकित करने की प्रवृत्ति सन पचास के बाद के दशक में थीं, जब लेखक के चारों ओर एक प्रभावमंडल निर्मित कर दिया और कुछ इने-गिने कथाकारों और उनकी कहानियों को छोड़कर बहुत से प्रतिभाशाली कथाकार और उनकी रचनाएँ गर्त में धकेल दी गई। रचनाओं से अधिक आत्मकथाओं और जीवनियों में पाठक दिलचस्पी लेने लगे। इसके बाद का समय एक तरह से रचनाकारों के व्यक्तिगत जीवन से पाठक के मोहभंग का रहा। आज पाठक की कोई दिलचस्पी लेखक के विगत जीवन के किस्सों में नहीं हैं क्यों कि आज के जीवन, समाज और राजनीति में उसे लेखकीय आत्मश्लाघा की इस वीभत्स नुमाइश से कहीं अधिक हैरतअंगेज घटनाएँ, घपले और घोटाले सुबह-शाम के अखबारों में बहुतायत में पढ़ने को मिल जाते हैं और आज का मुश्किल समय उसे व्यक्ति-पूजा के
लिए कोई अवकाश नहीं देता।
जिस देश में आज भी आए दिन गाँव-क़सबों में लाचार दलित औरतों को निर्वस्त्र पूरे गाँव में घुमाया जाता हो, जहाँ बलात्कार के मुकादमें बरसों कचहरियों की धूल फाँकते हों, जहाँ हर रोज़ दहेज के नाम पर लड़कियाँ जलाई जाती हो, जहाँ अंधविश्वास के तहत नरबलि दी जाती हो, वहाँ पश्चिम से आयातित उत्तर आधुनिकता और संरचनावाद जैसे वैचारिक बदलाव का प्रभाव समकालीन कहानी में ढूँढ़ना अप्रासंगिक हैं।
दोस्तोवस्की का कहना है -- 'सुन्दरता ही अंतत: इस दुनिया को बचाएगी'। जब तक जीवन में कोमलता और सौन्दर्य बचा है तभी तक जीवन जीवन हैं। मानवीय संवेदना के बिना साहित्य की पहचान असंभव है। कहानीकार होने की पहली शर्त उसका संवेदनाशील होना है। सादगी को असंवेदनशील बनाने, बनाते चले जाने के तमाम दबाव गाहे-बगाहे उसके अवचेतन पर पड़ते हैं पर एक रचनाकार तमाम अमानवीय, हिंसक और क्रूर स्थितियों के बीच से अपना रास्ता ढूँढ़ लेता हैं।
आज के प्रजातंत्र में जब एक आम आदमी भी अपनी एक राजनैतिक समझ रखता है और मौजूदा हालातों पर टिप्पणी करता है तो समय और समाज से जुड़ा लेखक इससे अलग, निर्विकार और तटस्थ कैसे रह सकता है? लेखक के पात्र उसकी पक्षधरता के वाहक अवश्य होते हैं, पर जहाँ विचारधारा कहानी पर सायास हावी हो जाए, वहाँ कहानी को क्षति पहुँचना बहुत ही स्वाभाविक है।
आमतौर पर आंदोलनों से कुछ कहानीकारों को लाभ होता है पर कहानी को नुकसान ही पहुँचता हैं। हिन्दी कहानी में विगत दशकों में चलाए गए आंदोलनों में -- नई कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी का कोई सीधा प्रभाव कहानी पर नहीं पड़ा, पर इतना अवश्य है कि चलाए गए आंदोलनों से एक खास समय की कुछ विशेष बदली हुई प्रवृत्तियाँ रेखांकित हो जाती हैं और कथा साहित्य के इतिहास के आकलन का काम आसान हो जाता है। परन्तु आमतौर पर ऐसे आंदोलनों का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इनसे न जुड़े रहने के कारण बहुत-सा अच्छा साहित्य हाशिए पर धकेल दिया जाता है।
हिन्दी कहानी भारतीय भाषाओं के अधिक करीब है। इसका एक कारण समानधर्मा परिवेश और सामाजिक संरचना हैं। हिन्दी कहानी किसी भी भारतीय भाषा की कहानी या विदेशी कहानियों के समकक्ष गर्व से रखी जा सकती है। हिन्दी की उदारता का ही परिणाम है कि हिन्दी में तमाम भारतीय भाषाओं तथा विदेशी भाषाओं का प्रतिनिधि साहित्य उपलब्ध है पर इतर भाषाओं में हिन्दी साहित्य का बहुत कम अनुवाद हुआ है इसका प्रमुख कारण स्वयं सरकारी संस्थानों द्वारा हिन्दी की उपेक्षा है।
अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों के मुकाबले हिन्दी कहानियों का तेवर कहीं अधिक पैना और प्रयोगधर्मा है पर वह हिन्दी का दुर्भाग्य है कि इसमें प्रकाशन की सुविधाएँ धीरे-धीरे कम हो रही है।कहानी में सबसे अहम उसका कहानीपन या कथ्य है। हर कहानी अपनी भाषा और बुनावट-शिल्प स्वयं गढ़ती है। एक सीधा सहज कथ्य उलझे हुए शिल्प के कारण आहत हो सकता है। कथ्य और भाषा का सानुपातिक सामंजस्य ही कहानी को संप्रेषणीय तथा ग्राह्य बनाता है।
'हिन्दी में कहानियाँ हैं, कहानीकार नहीं' की तर्ज़ पर यह कहना कहीं अधिक सटीक है कि हिन्दी में कहानियाँ हैं, पाठक नहीं। साहित्यिक और गंभीर रचनाओं के पाठक पहले भी माया, मनोहर कहानियाँ, सरिता या नीहारिका के पाठकों से कम ही थे। इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी भाषा वर्ग के संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है पर हिन्दी फ़िल्मों और सैटेलाइट चैनलों की तेज़ रफ्तार से आती 'हिंग्रेजी' ने महानगरीय युवा वर्ग को अपनी चपेट में ले लिया है। पिछले दस-पंद्रह वर्षों में धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी रंगीन पत्रिकाओं के बन्द होने से हिन्दी का एक एलीट पाठक वर्ग अंग्रेज़ी पत्रिकाओं की ओर मुड़ गया है। यह एक विडंबना ही है कि भारत की राजभाषा साहित्य से जुड़ने की जगह या तो कुछ पाठ्यक्रमों की किताबों में कैद हैं या किसी मीडिया बाज़ार के गलियारों में भटक रही है।जब तक मनुष्य में अपने भीतर पलते लावे को बाहर उड़ेलने की चाह बाकी हैं, काग़ज़ पर शब्द लिखे जाते रहेंगे।
प्रतिकार करने, विरोध का स्वर उठाने का यह एक सार्थक उपकरण हैं। इसलिए कला या साहित्य को मरने की घोषणाएँ निरर्थक हैं। यह ज़रूर है कि आज इस क्षेत्र में जश्न की अनुपस्थिति हैं।राजभाषा घोषित किए जाने के बावजूद हिन्दी भाषा स्वयं अस्तित्व के संकट से गुज़र रही है। जो भाषा अपने रचनाकारों को आर्थिक आधार ही प्रदान नहीं कर सकती, उसमें कहानीकार -कवि या विचारक कैसे पनप सकते हैं।
विदेशी भाषाओं के लेखक सिर्फ़ अपने लेखन के बूते पर एक अच्छी, सुविधाजनक ज़िन्दगी जी सकते हैं, जब कि हिन्दी लेखक को रोजी-रोटी के लिए कोई दूसरा जरिया तलाशना पड़ता हैं और अपने लेखक को ज़िंदा रखने के लिए कई तरह के समझौते करने पड़ते हैं। फिर भी हर काल में, हर पीढ़ी में कुछ ऐसे सिरफिरे निकल ही आते हैं जिनके लिए अकेले कमरे में काग़ज़ और कलम का साथ ही उनकी नियत बन जाता हैं, चाहे उसे पढ़ने-सराहने-समझने वाला कोई हो, न हो।
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