मार्क्सवाद का औचित्य
लाल्टू
[पूंजीवादी विकास निजी स्वार्थ को सर्वोपरि रखता है, तो हम निज की आजादी और सृजनात्मक अभिव्यक्ति का सम्मान करते हुए आर्थिक निर्णयों से लेकर सांस्कृतिक धरातल तक, चाहे उसमें धर्म और परंपरा की तलाश ही क्यों न हो, हर स्तर पर समष्टि को महत्त्व दें। शर्त सिर्फ यह हो कि इसमें सब की भागीदारी हो, हर किसी को निर्णय का हक हो। कवि और चिंतक लाल्टू का यह लेख पिछले अंक में कुछ अपरिहार्य कारणों से जाने से रह गया था। वैसे भी इस विषय पर कोई भी विमर्श अंतिम नहीं हो सकता। यानी यह अगले अंकों में भी किसी न किसी रूप में जारी रहेगा। – सं. ]
बाईस साल पहले जब बर्लिन की दीवार गिरी और सोवियत संघ के प्रभाव क्षेत्र में विघटन की प्रक्रिया की शुरुआत हुई तो पूंजीवाद के पक्षधरों को लगा कि अंतिम फैसला हो चुका। साम्य की लड़ाई खत्म हो गई और पूंजीवाद का झंडा हमेशा के लिए बुलंद हो गया। 1992 में योशीहीरो फ्रांसिस फुकुयामा की प्रसिद्ध पुस्तक द एंड ऑफ हिस्ट्री ऐंड द लास्ट मैन आई, जिसमें औपचारिक रूप से घोषणा की गई कि मानवता के सामाजिक सांस्कृतिक विकास का अंत हो गया और मुक्त बाजार प्रणाली पर आधारित तथाकथित पश्चिमी उदारवादी लोकतांत्रिक संरचनाएं ही अब सारी दुनिया में फैल जाएंगी। फुकुयामा स्वयं जापानी मूल के हैं (उनके दादा जापान से आए थे), संभवत: इसीलिए यह समझने में उन्हें देर न लगी कि सांस्कृतिक विकास का मामला जटिल है और इसे आर्थिक संरचनाओं से बिल्कुल अलग नहीं किया जा सकता। 1995 में ही अपनी एक और किताब में इस पर उन्होंने विस्तार से लिखा। पर सामाजिक राजनैतिक विकास पर अपनी मूल धारणा पर वह टिके रहे, हालांकि विश्व राजनीति में तेजी से हो रहे बदलाव और पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में विश्व-स्तर पर आई मंदी से घबराकर उन्होंने खुद को नव-संरक्षणशील आंदोलन से अलग कर लिया। लंदन से प्रकाशित दैनिक द गार्डियन में डेढ़ साल पहले एक आलेख में यह दावा किया गया कि विश्व-स्तर पर मार्क्सवाद का प्रभाव बढ़ रहा है। चूंकि मार्क्स की पहली चिंता मानव को लेकर है, इसलिए सामाजिक बराबरी के लिए जहां भी संघर्ष चल रहे हैं, चाहे-अनचाहे मार्क्सवाद का प्रभाव उन संघर्षों पर है। फुकुयामा या मार्क्सवाद के अन्य विरोधी इस बुनियादी बात को या तो समझते नहीं या उनके विचार बुनियादी तौर पर गुलाम और मानव विरोधी मानसिकता से पनपे हैं। मार्क्सवाद को चुनौती पूंजीवाद से नहीं, बल्कि सामाजिक बराबरी की लड़ाई में उभरे विचारों के समूह से ही मिल सकती है।
जब तक समाज में व्यापक गैरबराबरी रहेगी, मार्क्सवाद का औचित्य बना रहेगा। उन्नीसवीं सदी में मार्क्सवाद की जमीन पश्चिमी मुल्कों में बेहतर मेहनताना और श्रम की बेहतर शर्तों के लिए लड़ाई थी। बीसवीं सदी में यह लड़ाई चलती रही और उपनिवेशों में वह साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का हिस्सा बन गई। आज भी न तो पश्चिमी मुल्कों में स्थिति पूरी तरह सुधरी है (सं. रा. अमेरिका में संपन्न एक प्रतिशत की कुल दौलत बाकी 99 प्रतिशत की दौलत का 70 गुना है) और न ही बाकी दुनिया के बारे में कहने लायक कोई आर्थिक तरक्की हुई है। मैंने अपनी कविता ‘लड़ाई की कविता’ में इसे कहने की कोशिश की है – ‘2010 में आदमी लड़ रहा है 1850 की लड़ाई। एक दिन में आधा दिन मांग रहा है अपने लिए। / आधी रात को मकान की छत बना रहा है आदमी। जिसे मकान में रहना है, वह 2010 में आदमी को देखता है जैसे 1890 को आने में अभी और कई साल लगेंगे। /आदमी सोचता है कि वह इस ग्रह का वासी नहीं है। अपने ग्रह में उसे दो-तिहाई दिन अपने लिए मिल सकता है। अपने ग्रह में बच्चों के साथ खेलने के अलावा वह सपने भी देख सकता है। यहां इस ग्रह में वह इंतजार में है कि 2020 या 2030 तक वह 1890 से आगे चल पाएगा। इस तरह वह फुकुयामा को बतलाता है कि इतिहास और खगोल, सब गड्डमड्ड हैं। /छत बनाते हुए उसे देखते लगता है कि वह रात के अंधेरे में नहीं लड़ सकता। सभी फुकुयामा इस खयाल में पूरी उन्नीसवीं सदी बिता देते हैं। /पर वक्त है कि चलता रहेगा। ग्रह चलेंगे, नक्षत्र चलेंगे। /आदमी है कि लड़ता रहेगा।
पूंजीवाद मानव के विकास की धारणा को लिए हुए नहीं आता। पूंजी का एकमात्र धर्म पूंजी को ही पैदा करना है। पर पूंजीवाद के पक्षधर इसके साथ विकास की धारणा को जोड़ते हैं। योरोप में नवजागरण, आधुनिकता और प्रबोधन का समय पूंजीवाद के अभ्युदय का समय है। उन्नीसवीं सदी तक योरोप और अमेरिका में पूंजी के पैदा होने में आधुनिक शहरी सभ्यता का सीधा संबंध रहा। इसलिए सरमायादारों की बात करते हुए फ्रांसीसी शब्द ‘बुर्जुआ’ (शहरी) का उपयोग होता है। पूंजीवाद के साथ जुड़ा विकास इसी बुर्जुआ वर्ग का विकास है, जिसमें बेशक बौद्धिक, ज्ञान-विज्ञान, कलाओं आदि का विकास सम्मिलित है। मार्क्स के अध्ययन और कृतियों में इसी विकास की पहली और अब तक की सबसे अधिक प्रभावी आलोचना है। मार्क्सवाद सकारात्मक आधुनिक चिंतन की पराकाष्ठा है; यह मानव समाज के बारे में एक नया आख्यान पेश करता है। अगर इस पद्धति में कोई संरचनात्मक संकट है तो यह मार्क्सवाद के लिए चुनौती है।
जहां एक ओर पूंजीवादी विकास से बुर्जुआ वर्ग को फायदा पहुंचता है (सीमित अर्थ में), वहीं समाज का बाकी बड़ा हिस्सा इसी विकास से पहले से बदतर स्थिति में पहुंच जाता है। इसे हम ‘अंडरडेवलपमेंट’ या कुविकास कह सकते हैं। अफ्रीकी मूल के प्रसिद्ध गयानावासी चिंतक वाल्टर रॉडनी ने अपनी पुस्तक हाऊ योरोप अंडरडेवलप्ड अफ्रीका में इसे विस्तार से समझाया है। 1 इसी के आधार पर अफ्रीकी अमेरिकी अर्थशास्त्री मैरेबल मैनिंग ने हाऊ कैपिटलिज्म अंडरडेवलप्ड ब्लैक अमेरिका लिखी, जिसमें पूंजीवाद के विकास का अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय पर जो असर पड़ा, उसका ब्यौरा दिया गया है। 2 रॉडनी ने अफ्रीका के इतिहास से उदाहरण लेकर विस्तार से समझाया कि योरोप में पूंजीवादी विकास को अफ्रीका में हुए कुविकास से अलग कर नहीं देखा जा सकता। इसी तरह अफ्रीकी अमेरिकी कामगारों की दुर्दशा को समझे बिना हम श्वेत अमेरिका में पूंजी की बढ़त को नहीं समझ सकते। यह पूंजीवादी विकास की विडंबना है। मुनाफे के लिए जो वाजिब दिखता है, वह मानव के सर्वांगीण विकास के पक्ष में है या नहीं यह सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता, जैसा भी है, भला या बुरा, मुनाफा है तो वह पूंजीवादी विकास का भी एजेंडा है। जब तक मुनाफा ठीक हो रहा है, मानव पूंजीवादी एजेंडे में नहीं है, उल्टा कहीं वह पिस रहा है तो पिसता रहे। बराबरी, स्वच्छंदता – ये मानव की नैसर्गिक मांगें हैं। मानव और प्राकृतिक संपदा का पूरी तरह से शोषण होता है तो हो, जिन्हें फायदा हो रहा है, वे बौद्धिक विकास की दुहाई देते रहेंगे – एक हद तक पूंजीवादी विकास यह भ्रम पैदा करने में सक्षम होता है कि यह उदार समाज की ओर बढऩे का जरिया है। कोई शक नहीं कि उन्नीसवीं सदी की तुलना में बीसवीं सदी के अंत तक अमेरिका और योरोप में उदारवादी लोकतांत्रिक सोच का वर्चस्व निरंतर बढ़ा। शिक्षा, स्वास्थ्य आदि बुनियादी सुविधाएं अधिकतर लोगों को मिलीं। यह पूंजीवादी विकास के एजेंडे से नहीं, लगातार हुए लोकतांत्रिक संघर्षों और साम्राज्यवाद के जरिए बाकी दुनिया से हड़पे संसाधनों के जरिए हुआ। उन्नीसवीं सदी में अमेरिका में उत्तरी क्षेत्रों में औद्योगिक पूंजीवाद के भौगोलिक प्रसार के लिए दक्षिणी क्षेत्रों में कपास की खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था को हटाना जरूरी था। यह गृहयुद्ध का कारण बना। इतिहास में इसे दासप्रथा उन्मूलन की लड़ाई कहा जाता है। दक्षिणी संघ को निर्णायक रूप से हरा कर जो नई व्यवस्था बनी, उसमें धीरे-धीरे अफ्रीकी मूल के लोगों के सारे अधिकार छीन लिए गए, जिन्हें फिर से पाने के लिए उन्हें सौ साल तक कठिन संघर्ष करना पड़ा। इन सौ सालों के दौरान अमेरिकी बुर्जुआ वर्ग में अफ्रीकी मूल के लोगों का न केवल कोई प्रतिनिधित्व न था, उन्हें सख्त नस्लवादी तरीकों से दबा कर रखा गया। मैनिंग इसी विकास को कुविकास कहते हैं। निसंदेह अफ्रीका का जो शोषण योरोपीय और अमेरिकी व्यापारियों ने किया, उस दौरान अफ्रीका का कुविकास ही हुआ। हाल के वर्षों में भारतीय समाज विज्ञान में भी इस दिशा में शोध बढ़ा है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद से किस तरह भारतीय उपमहाद्वीप के राष्ट्रों का स्वाभाविक विकास रुक गया और यह क्षेत्र कुविकास का शिकार हुआ। इसमें बहुत कुछ पुनरुत्थानवादी प्रवृत्ति से किया गया काम है, पर गंभीर तथ्यात्मक खोज की भी कमी नहीं है। मानव विरोधी प्रवृत्तियों से समझौता कर और उनके सहयोग से पूंजी की बढ़त कोई आश्चर्य की बात नहीं, बल्कि यही पूंजी का धर्म है। इसलिए जब तक पश्चिमी ‘लोकतांत्रिक सरकारों’ को हिटलर या फ्रांको जैसी अन्य जनविरोधी शासन-व्यवस्थाओं से समझौता करने में फायदा था, उन्होंने ऐसा किया। जब जंग पूंजी के हितों पर चोट पहुंचाने लगी, तभी विरोध शुरू हुआ।
मार्क्स ने अपने विश्लेषण में पूंजीवादी विकास के बुनियादी कारणों से होनेवाले संकट की बात की है। खपत न हो सकने लायक अतिरिक्त उत्पादन, श्रम के मूल्य में ह्रास, अलगाववाद आदि कई मुद्दों को रेखांकित करते हुए मार्क्स ने सिद्ध किया कि पूंजीवादी विकास कभी संकट मुक्त नहीं हो सकता। राज्य या अन्य एजेंसियों के हस्तक्षेप से इस संकट को कुछ समय तक टाला जा सकता है, पर वह बार-बार लौट आता है। इसलिए उन्नीसवीं सदी से लेकर अब तक कई बार विश्व-स्तर पर आर्थिक मंदी आई है। यह बात इतनी पुरानी हो गई है कि इस पर चर्चा करने का कोई तुक नहीं है। हमें अपना ध्यान मार्क्सवाद के लिए चुनौतियों पर केंद्रित करना चाहिए।
पहली साधारण चुनौती तो यही है कि पूंजी का कुतर्क जिस सरल ढंग से पेश किया जाता है, मार्क्स का चिंतन उतना ही कठिन लगता है। हालांकि हमारी आम भाषा में वर्ग, बुर्जुआ, सर्वहारा आदि शब्द बोलचाल में आ गए हैं, मार्क्सवाद के बारे में आम समझ मानवतावादी या अराजकतावादी समझ मात्र है। समाज में गैरबराबरी के खिलाफ कोई भी समझदारी से बात कर रहा हो तो उसे मार्क्सवादी मान लिया जाता है। इसलिए जहां एक ओर तो दक्षिणपंथी पाखंडी यह ढूंढने में लगे रहते हैं कि किस वामपंथी के पास कितनी संपत्ति है, दूसरी ओर मार्क्स को उद्धृत कर वैचारिक विमर्श में लगातार दरारें बढ़ाते वामपंथी बुद्धिजीवी यह भूल जाते हैं कि मार्क्सवादी सोच मूलत: एक गतिशील विज्ञानधर्मी मानवतावादी सोच है। मार्क्स के जीवनकाल में उन तमाम संकटों के बारे में कोई जानकारी या तो उपलब्ध न थी या बहुत ही कम थी, जो बीसवीं सदी में ही पूरी तरह उजागर हुए हैं। पर्यावरण के संदर्भ में विज्ञान की सीमाएं, लिंगभेद, नस्ल और जाति विषयक समझ, ये तमाम बातें बीसवीं सदी में ही गहराई से सोची समझी गई हैं। पहले जो कुछ सोचा गया था, उस विचार जगत में मार्क्सवाद सबसे अग्रणी भूमिका में था। कई ऐसी बातें मार्क्स और एंगेल्स के लेखन में हैं जिनको आज कहीं बेहतर समझा जा सकता है। लुंपेन या लंपट श्रेणी और इससे जुड़ी संस्कृति पर जिस तरह आज सोचा जा सकता है, वह उन्नीसवीं सदी में कतई संभव न था।
मानव समाज के विकास का एक निश्चित आख्यान गढ़ते हुए मार्क्स ने जिस दर्दनाक उदासीनता की मांग रखी थी, उसके बारे में फिर से सोचना जरूरी है। हम कह सकते हैं कि रॉडनी, मैनिंग या फानों3 कहीं न कहीं इसी बात को रेखांकित करते हैं। भारत के बारे में सीमित सामग्री पर आधारित अपने महत्त्वपूर्ण आलेख4 में मार्क्स ने यह मानते हुए भी कि ‘इस बारे में कोई शक नहीं कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद से हिंदुस्तान को पहले की अपेक्षा भिन्न और बेइंतहा गुना कष्ट झेलना पड़ा है’, अंतत: यह कहा कि ‘इंग्लैंड ने जो भी अपराध किए, ऐसा करते हुए उसकी अचेत भूमिका ‘क्रांति के कर्णधार की रही’। गोएठे की कविता उद्धृत करते मार्क्स ने कहा कि हम पीड़ाओं से रो नहीं सकते और भविष्य के आनंद का ध्यान रखते हुए हमें इस पीड़ा से गुजरना होगा। इस कथन को सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों ने सीमित अर्थ में इस तरह पढ़ा है कि मार्क्स भारतीय मानस को योरोपीय ढांचे में ढालने को बेचैन थे, पर मार्क्स की असली बेचैनी विश्व के अन्य देशों की तरह भारत में भी समाजवादी क्रांति लाने की थी। फिर भी, यह देखते हुए कि पूंजीवादी कुविकास का शिकार मानवता का विशाल बहुसंख्यक हिस्सा है, हमें यह सोचना होगा कि हम इस पत्थर के सनम जैसी उदासीनता से कैसे निकलें। इसके लिए हमें अराजकतावाद के प्रति मार्क्सवादी असहिष्णुता को कम करना होगा। सांस्कृतिक पटल पर सरलीकृत मॉडल काम नहीं करेंगे, सृजनात्मक अराजकता को भरपूर जगह देनी होगी।
एक ओर तो वैचारिक स्तर पर आम लोगों तक पहुंचने की सीमा है (साथ ही प्रशिक्षित कार्यकर्ता के अवांछित अहं को भी समझने की बात है), दूसरी ओर सतही वैचारिक समझ से उपजी लंपट और गुंडा संस्कृति और बुर्जुआ हितों से समझौतों से जूझने की बात है। जहां मार्क्सवादी वाम की ताकत कम हुई है, वह इन्हीं कारणों से हुई है। नस्ल, जाति और स्त्री प्रश्न पर मार्क्स की अपनी समझ को लेकर काफी कुछ कहा जाता है, पर सही सवाल यह होना चाहिए कि मार्क्सवादी पद्धति में इन प्रश्नों से जूझने की कितनी संभावना है। मार्क्सवादियों को यह समझने में लंबा वक्त लगा है कि ये महज सांस्कृतिक बहिरचना का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि ये बुनियादी द्वंद्व हैं। समझ सिद्धांतों को पढऩे मात्र से नहीं आती, बल्कि जीवन के अनुभव भी इसके लिए जरूरी हैं। भारत में अभी तक मार्क्सवादी आंदोलनों में नेतृत्व सवर्ण जातियों के पुरुषों के हाथ है। इसे देखते हुए लगता है कि मार्क्सवादी नेतृत्व की जन में आस्था नहीं है। स्पष्ट है कि यह बड़ी चुनौती है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ के प्रसार में मार्क्सवादियों की भूमिका सर्वोपरि होनी ही है, और जैसे-जैसे यह समझ व्यापक हुई है, जाति और स्त्री प्रश्न और उभर कर सामने आए हैं। पर नेतृत्व इन सवालों के उभार को उसी गति से स्वीकार नहीं कर पाया है।
चुनावी राजनीति के दांवपेंच और उनकी वजह से किए गए समझौते मार्क्सवादी आंदोलनों की बड़ी समस्या रहे हैं। समझौतों की वजह से सही लाइन की परिभाषा बिगड़ती गई है और अक्सर यह समझ पाना मुश्किल होता गया है कि मार्क्सवाद का नाम लेने वाली पार्टियां सचमुच किस हद तक मार्क्सवादी सोच को साथ लिए हैं। सही है कि जैसे-जैसे परिस्थितियां बदलती हैं, लाइन भी बदलती है। ऐसा है तो भिन्न इलाकों में भिन्न स्थितियों को देखते हुए रणनीति भी अलग अलग होनी चाहिए। कहीं चुनावी समझौते, तो कहीं सशस्त्र संघर्ष साथ चलना चाहिए। अलग- अलग रणनीतियों को अपनाती प्रवृत्तियों में आपसी समझ होनी चाहिए। होता यह है कि हर प्रवृत्ति दूसरी प्रवृत्ति को गलत मानकर चलती है। आपसी संघर्ष अक्सर हिंसक और सामंती या बुर्जुआ व्यवस्थाओं के खिलाफ संघर्ष से भी ज्यादा तीखा होता है। हर स्तर पर, नेतृत्व से लेकर कॉडर तक, अपनी ऊर्जा का अधिकांश इसी संघर्ष में बर्बाद कर देते हैं। ऐसा लगता है कि अभी भी जारशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा रही है और हर प्रवृत्ति अपनी साख स्थापित करने की जद्दोजहद में जुटी है। यह एक तरह की अकर्मण्यता (इनर्शिया) है, जिससे छूटे बिना मार्क्सवादी आंदोलन एक सीमा के आगे नहीं बढ़ सकते। विश्व-स्तर पर स्थितियां बदल चुकी हैं। स्टालिनवाद या माओवाद और स्पेन, इटली की योरोपीय मार्क्सवाद की सैद्धांतिक मुठभेड़ भी अब पुरानी पड़ गई हैं। यहां तक कि भारत में माओवाद को मात्र आदिवासियों के हितों में सशस्त्र आंदोलन कह दिया जाता है। दूर-दराज के इलाकों तक और अनपढ़ गरीबों को भी संप्रेषण की सुविधाएं उपलब्ध हैं। इस तकनीकी और सूचना क्रांति का सेहरा पूंजीवाद को पहना दिया जाता है, पर इसके सही दावेदार लोकतांत्रिक आंदोलन रहे हैं, जिनमें मार्क्सवादी सोच की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। मार्क्सवादी नेतृत्व इस बात से वाकिफ होते हुए भी इसका फायदा उठाने में और इस समझ के अनुसार जरूरी बदलाव लाने में अक्षम दिखता है। इस वक्त मार्क्सवादी नेतृत्व के लिए जनमानस में अपना लोकतांत्रिक चरित्र स्थापित करना ज्यादा जरूरी है। इसके लिए पहले मार्क्सवादी नेतृत्व में एक बड़ा मंच बनना जरूरी है, जहां न केवल मार्क्सवादी, बल्कि सामाजिक बराबरी की लड़ाई में जुटा हर कोई शामिल हो सके, जहां अलग-अलग रणनीतियों और समझौतों पर परस्पर सम्मान के साथ बात हो सके। यह एक ऐतिहासिक क्षण है जब पूंजीवाद एक बार फिर अपने चरम संकट पर है। रीगन-थैचरवाद और मनमोहनी वैश्वीकरण-उदारीकरण की पोल पूरी तरह खुल चुकी है। इस वक्त यह लाजिमी है कि मार्क्सवादी और अराजकतावादी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका को पहचानें और एक बृहत् मंच बनाने में जुट जाएं। साथ ही जन में आस्था होनी जरूरी है। जो दरकिनार रहे हैं, उनको आगे लाना होगा। इतना ही नहीं, नम्रता के साथ उनके नेतृत्व में काम करने के लिए खुद को तैयार करना होगा। यह विश्वास बनाए रखना होगा कि इतिहास का अंत नहीं हुआ है, उसकी अपनी गतिकी है। चिंतकों को प्रतिबद्ध और गंभीर विश्लेषण में लोकतांत्रिक तत्त्वों को और अधिक जगह देनी होगी।
यह लोकतांत्रिक स्वरूप समय की मांग है। न केवल पार्टी, बल्कि श्रमिक संगठनों से लेकर सांस्कृतिक मंचों तक हर स्तर पर यह संकट समूचे वाम आंदोलन में है। साहित्य, कला, सिनेमा, यहां तक कि खान-पान और पहनावों तक में लोकतांत्रिक राजनीति को ‘स्पेस’ चाहिए। तात्पर्य यह नहीं कि हर किसी को वैचारिक समझौता करना है। एक ही मंच में परस्पर ईमानदारी पर आस्था रखते हुए लगातार बातचीत का माहौल तैयार करना और हाशिए पर पड़े को बीच में लाना, यह करना है। पूंजीवादी विकास निजी स्वार्थ को सर्वोपरि रखता है, तो हम निज की आजादी और सृजनात्मक अभिव्यक्ति का सम्मान करते हुए आर्थिक निर्णयों से लेकर सांस्कृतिक धरातल तक, चाहे उसमें धर्म और परंपरा की तलाश ही क्यों न हो, हर स्तर पर समष्टि को महत्त्व दें। शर्त सिर्फ यह हो कि इसमें सब की भागीदारी हो, हर किसी को निर्णय का हक हो।
आज के मार्क्सवाद को इस नए मुहावरे के साथ ही हमें समझाना होगा कि यह दुनिया कैसे बुनियादी रूप से बदल चुकी है। आम आदमी जानना चाहता है कि चुनावी दंगल ने कैसे मार्क्सवादी दलों का चरित्र बदला। वह यह भी जानना चाहता है कि कब तक जंगलों में छिप कर साथी लड़ते रहेंगे। क्या सामाजिक लोकतांत्रिक आंदोलन और खाड़कू-लड़ाकू हमेशा ही एक दूसरे के खिलाफ काम करते रहेंगे या बदली हुई परिस्थितियों में हाथ मिलाकर अपने-अपने क्षेत्र में संघर्ष करेंगे?
संदर्भ
1. हॉउ योरोप अंडरडेवलेप्ड अफ्रीका: वाल्डर रोडने; हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, परिवद्र्धित संस्करण, 1981
2. हॉउ केपिटलिज्म अंडरडेवलेप्ड ब्लैक अमेरिका : मार्बल मैनिंग; साउथ एंड प्रेस, 1983
3. द रेचेड ऑफ द अर्थ : फ्रेंज फेनॉन; ग्रोव प्रेस, पुनर्मुद्रित संस्करण, 2005
4. द ब्रिटिश रूल इन इंडिया : कॉर्ल मार्क्स; जून 1853, न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून
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